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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन १०७ चाहिए-आत्म-कल्याण-अपना शोधन। आत्म-शोधक ही दूसरों को उबार सकता है। ___ आचार्य भिश्रु एक-एक धर्म को परखते हुए चलते चले । वर्षों की परख और साधना के बाद वे तेरांपथ के अधिनायक के रूप में धर्म-क्षेत्र में चमके। आघातप्रत्याघात के भँवर में रुके बिना अव्याहत गति से बढ़े चले। वे वैद्य बने। साधु-समुदाय की नाड़ी पहचानी। अनाचार की धुरी तोड़ने उनका दिल क्रान्ति से उद्वेलित हो उठा। वे विद्रोह के स्वर में बोले । युग की तहों में छिपी बुराई बाहर आ पड़ी। मन बांधने की वृत्ति से वे सदा खिसियाए रहे। शिष्यों की जागीरदारी प्रथा को तोड़ने के लिए आग उगली। धन और घर बांध बैठने वाले साधुओं पर तीखे बाण फेंके। आपस में झगड़ने वाले साधुओं की ठगी वृत्ति की जड़ काटते रहे । खान-पान के लालची और ऐशो-आराम में फंसे साधुओं की कमजोरियों पर उनकी लोह लेखनी ने निराले ढंग का प्रहार किया । उनकी दो रचनाएं-(१) साधां रै आचार री चौपई' और (२) 'श्रद्धा री चौपई' पढ़ जाइए। उनकी क्रान्ति की चिनगारियां आचार-शैथिल्य को धुआं करती नजर आएंगी। आप सहमेंगे-कटु पदावली पर, कटु शब्दों पर और चुभने वाली गाथाओं पर। ___ ये रचनाएं आचार्य हरिभद्र के युग की और उनकी क्रान्त-कृति 'संबोध-प्रकरण' की स्मृति सहसा ला देती हैं। चैत्यवासियों की आचार ढिलाई पर उन्होंने जो रुख लिया, उससे हजार गुना रूखा रुख आचार्य भिक्षु ने अपनाया । आचार्य भिक्षु जितने क्रान्तदर्शी थे, उतने ही नहीं, उससे और अधिक शान्तदर्शी थे । उनकी वीतराग की-सी क्षमा पत्थर-दिल को पिघलाने वाली थी। बुराई के साथ वे जीवन-भर जूझते रहे। पर व्यक्ति का प्रेम उन्होंने कभी नहीं खोया । प्रतिद्वन्द्वियों के साथ भी उनका स्नेह-भरा व्यवहार था। उन्होंने अपने अनशनकाल में विचार-भेद रखने वालों से क्षमा मांगी । जान या अनजान में हुए-कटु व्यवहार की आलोचना की। तब विरोधी कहलाने वालों की आंखें भी डबडबा आयीं। उनके हृदय में प्राणी मात्र के प्रति समता का भाव था। बड़ों के लिए छोटों की हिंसा को धर्म मानने के लिए वे कभी तैयार नहीं हुए। उनके मस्तिष्क में दान और दया की मर्यादा का पूरा विवेचन था। लोग उनके सिद्धान्तों की तोड़-मरोड़ करते रहे, चूहे-बिल्ली जैसी भ्रामिक आपत्तियां उठाई, धर्म-संकट के प्रश्नों द्वारा जनता को उत्तेजित किया, फिर भी वे अपने विश्वास पर अटल रहे। शान्त-भाव से जनता को तथ्य बताते रहे। उनका अहिंसा, दान और दया सम्बन्धी दृष्टिकोण लोक-धारणा से भिन्न था। उन्होंने बताया-अध्यात्म-दया वह है, जिसमें राग-द्वेष, मोह आदि न हों। वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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