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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन साधना लिए चलते हैं । गृहस्थ समाज की श्रृंखला से बंधा हुआ होता है, इसलिए वह केवल आत्म-धर्म का पालन करने वाला ही नहीं होता, वह लोक-धर्म की मर्यादाओं को भी निभाता है। कुमार ऋषभ के विवाह का प्रसंग देखिए । आचार्य जिनसेन लिखते हैं' : पश्यन् पाणिगृहीत्यौ ते, नाभिराजः सनाभिभिः । समं समतुषत् प्रायः, लोकधर्मप्रियो जनः ।। 'महाराज नाभिराज अपने परिवार के लोगों के साथ दोनों पुत्र बंधुओं को देखकर भारी सन्तुष्ट हुए, सो ठीक ही है । क्योंकि संसारी जनों को विवाह आदि लोक-धर्म ही प्रिय होता है ।' कुमार ऋषभ से विवाह करने के लिए प्रार्थना करते समय कहा जाता हैप्रजासन्तत्यविच्छेदे, तनुते धर्मसंततिः । मनुष्व मानवं धर्मं, ततो देवेममच्युतः ॥ 'प्रजा की संतति का उच्छेद नहीं होने पर धर्म की संतति बढ़ती रहेगी, इसलिए हे देव ! मनुष्यों के इस अविनाशिक विवाह रूपी धर्म को अवश्य ही स्वीकार कीजिए ।' देवेमं गृहिणां धर्मं विद्धि दारपरिग्रहम् । 7 सन्तानरक्षणे यत्नः, कार्यो हि गृहमेधिनाम् ॥ १५६४ 'हे देव ! आप इस विवाह - कार्य को गृहस्थों का एक धर्म समझिए। क्योंकि गृहस्थों को संतान की रक्षा में प्रयत्न अवश्य ही करना चाहिए।" इस प्रसंग में आए हुए लोक-धर्म, मानव-धर्म और गृहि धर्म - तीनों शब्द ध्यान देने योग्य हैं । बहुधा कहा जाता है— आत्म-धर्म और लोक-धर्म, ऐसे दो भेद तेरापंथ के आचार्यों ने - विशेषतः आचार्य श्री तुलसी ने किए हैं। उन्हें आचार्य जिनसेन (जो विक्रम की सातवीं सदी में हो चुके हैं) के शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। कोई भी जैनाचार्य विवाह को धर्म नहीं मानते । लोक दृष्टि से वह बुरा कार्य भी नहीं है, इसलिए उसे लोक-धर्म कहा गया है । आचार्य हेमचन्द्र इसे व्यवहार- पथ कहते हैं I * तथापि नाथ ! लोकानां, व्यवहारपथोऽपि हि । त्वयैव, मोक्षवर्त्मेव, सम्यक् प्रकटयिष्यते ॥ १. महापुराण १५७ २. वही १५।६३ ३. वही १५।६४ ४. त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित १।२।७६३, ७६४ EE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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