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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन लिए लाखों धर्मोपदेश की अपेक्षा एक हल अधिक उपयोगी है । संसार के आरम्भ में से जितनी प्रार्थनाएं की गई हैं, वे सब उतने रोगों को दूर न कर सकेंगी जितने रोग किसी एक सामान्य पेटेण्ट दवा से दूर हो सकते हैं।" जहां पौद्गलिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए धर्म की कल्पना हो, वहां वह व्यर्थ है। यह सच है-रोटी, कपड़ा आदि सुख-सुविधाएं प्राप्त करने में धर्म सहायक नही बनता। धर्म के बारे में दूसरी कल्पना प्रवर्तक-धर्म की है। वह पारलौकिक भी है और आध्यात्मिक भी। किन्तु वह मोक्ष को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार धर्म का ऐहिक फल है अभ्युदय और पारलौकिक फल है स्वर्ग-प्राप्ति । तीसरी परम्परा निवर्तक-धर्म की है। इसका साध्य है मोक्ष। इसके अनुसार धर्म सिर्फ आत्म-शुद्धि के लिए ही किया जाना चाहिए। ऐहिक और पारलौकिक सुख-सम्पदाओं, वैभव और स्वर्ग के लिए धर्म नहीं करना चाहिए। इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा-'आप मिले हुए भोगों को छोड़ कर आगामी भोगों के लिए तप तप रहे हैं, यह आश्चर्य की बात है।' राजर्षि बोले- 'काम-भोग शल्य हैं, विष हैं। उनकी कामना करने वाले दुर्गति में जाते हैं । मैं आत्म-शुद्धि के लिए तप रहा हूं, पारलौकि भोगों के लिए नहीं। निवर्तक धर्म पूर्णतया आध्यात्मिक है। पौद्गलिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से वह न इहलौकिक है और न पारलौकिक । आत्म-शुद्धि की दृष्टि से वह इहलौकिक भी है और पारलौकिक भी । प्रवर्तक और निवर्तक धर्म का आधार प्रवर्तक और निवर्तक धर्म का आधार कर्मवाद है । कर्मवाद की दो शाखाएं रही हैं : १. त्रिवर्गवादी, २. पुरुषार्थ-चतुष्ट्यवादी । धर्म, अर्थ और काम ---इन तीन पुरुषार्थों को स्वीकार करने वाली शाखा में मोक्ष का स्थान नहीं है। इसी का नाम प्रवर्तक धर्म है। इसका चरमसाध्य स्वर्ग है । इसके अनुसार धर्म, शुभकार्य या पुण्य का फल स्वर्ग है। अधर्म, अशुभ कर्म या १. स्वतंत्र विचार : कर्नल इंगरसोल, पृ० ४१ (अनुवादक : भदन्त आनन्द. कौसल्यायन)। २. दशवकालिक-६४ ३. उत्तराध्ययन ६।५१,५३ ४. वही, १११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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