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________________ ८८ अहिंसा तत्त्व दर्शन ___'अधिकांश अन्धों को दयालु, धर्मालु व्यक्तियों के दान पर ही निर्भर करना पड़ता था, इस दृष्टि से समाज में उनका स्थान बड़े सम्मान का था; ऐसा नहीं कहा जा सकता। हिन्दू, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुसलमान आदि सभी धर्मों में दान की बड़ी महिमा वणित हुई है और इसीलिए सुगमता से भिक्षा-वृत्ति ही अन्धों का एक प्रमुख पेशा बन गया।" जब तक सामाजिक समानता का भाव विकसित नहीं हुआ था तब तक दानपुण्य के आधार पर असहाय व्यक्तियों को कुछ दिया जाता था। आज के प्रबुद्ध युग में वह धारण विलुप्त हो चुकी है। अब वे भिक्षा या कृपा के नहीं किन्तु सामाजिक संभाग के अधिकारी माने जाते हैं। इसलिए उनके प्रति दया का भाव नहीं, कर्तव्य का भाव जुड़ गया है। एक दर्शन सामाजिक दया-दान को आत्म-धर्म मानता है, उससे उसे पुष्टि मिलती है। और दूसरा दर्शन उसे आत्म-धर्म नहीं मानता, उससे क्या दया-दान के अस्तित्व को खतरा नहीं है ? यह प्रश्न होता है। इसके उत्तर में मैं इतना ही कहूंगा कि सहयोग एक सामाजिक आवश्यकता है और मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । सहयोग भावना की पुष्टि के लिए यह भावना पर्याप्त है। आत्म-धर्म के प्रति कोई आस्थावान हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता, किन्तु सामाजिक प्राणी समाज का अंग होने के नाते समाज-धर्म के प्रति सहज भाव से आकृष्ट हो सकता है। समाज-व्यवस्था के विकृत रूप में चलने वाले दया-दान का समर्थन कर धर्म बहुत उद्दीपन नहीं पा सकता। अपने सामाजिक भाइयों को दीन-हीन मानने पर ही दया और उन्हें भिखारी मानने पर ही दान-धर्म का अस्तित्व टिका हुआ है, वह धर्म-प्रभावना के बदलने में धर्म-ग्लानि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। इसलिए इस प्रश्न पर गतिशील और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण से अनुप्रेक्षा करनी चाहिए। १. नया समाज, पृ० १८२, १८३, सितम्बर, १६५३ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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