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________________ अहिंसा तत्त्व दर्शन रहा और आत्म-धर्म से मुंह मोड़ बैठा । आत्म-धर्म के सिवा अगर कोई दूसरी वस्तु सद्गति का कारण होती तो नन्दन की ऐसी स्थिति नहीं बनती। बहुत सारे व्यक्ति लौकिक व्यवहार को ही धर्म-पुण्य मानकर आत्म-धर्म से परे खिसक जाते हैं, यह बड़ी भूल होती है। लौकिक व्यवहार गृहस्थ के लिए अनिवार्य है । आरम्भ करना गृहस्थ की कमजोरी है, किन्तु उसे धर्म समझना मोह की प्रबलता है। गृहस्थ को अनर्थ-हिंसा से अवश्य बचाना चाहिए। व्यक्तिगत स्वार्थ या सामाजिक स्वार्थ के लिए होने वाली हिंसा, जिसे भगवान् महावीर ने अनर्थ-हिंसा कहा है, से व्यक्ति विवेकपूर्वक बचे—यह तथ्य है । भव-वैराग्य होगा तो वह हिंसा को छोड़ता चला जाएगा। आखिर साधु या संन्यासी भी बन जाएगा । वास्तव में सही विरक्ति होनी चाहिए। वैयक्तिक स्वार्थ का भरपूर पोषण करने वाले सामाजिक स्वार्थ से बचने के लिए दम्भ भरें-वह सही नहीं लगता। 'गाय से दूध लूंगा, किन्तु उसे घास नहीं डालूंगा'- ऐसी अविवेकपूर्ण प्रवृत्ति अहिंसा नहीं किन्तु अहिंसा के साथ मखौल है। आचार्य भिक्ष और जयाचार्य ने यकिंचित् कटु सत्य कहा है। वह भी लौकिक व्यवहार को तोड़ने के लिए नहीं किन्तु वस्तुस्थिति को यथार्थ रूप में समझाने के लिए, दृष्टि को सम्यक् बनाने के लिए वैसा कहना पड़ा। लोगों ने प्रत्येक आवश्यक कर्तव्य पर धर्म की छाप लगा दी। उन्होंने मान लिया कि पानी पिलाना धर्म है, रोटी खिलाना धर्म है, पैसा देना धर्म है। धर्म भी व्यवहार का नहीं मोक्ष का। क्या धर्म बाहर से टपक पड़ता है ? धर्म का रूप विकृत बना दिया गया। कष्ट कौन सहे? त्याग-तपस्या कौन करे? ब्राह्मणों को भोजन करा दिया, जैनों ने दया पला दी-श्रावकों को जिमा दिया, धारणा-पारणा करा दिया। वे धर्म करेंगे उसका हिस्सा, उसकी प्रेरणा या अनुमोदना उन्हें मिल जाएगी। ऐसी भ्रान्त धारणाएं चल पड़ीं। धर्म की मौलिक साधना-सत्य, सन्तोष, मैत्री, अपरिग्रहदब गई और बाहरी आवरण उभर आया। ऐसी स्थिति में कटु सत्य भी उपयोगी होता है । वह समाज-विरोधी संस्कारों को नहीं डालता किन्तु धर्म के नाम पर पलने वाले विकारी संस्कारों और आडम्बरों को उखाड़ फेंकता है। आचार्य भिक्षु के सिद्धान्त को पढ़ते समय उनके पारिपाश्विक वातावरण को ध्यान में रखना जरूरी है। उसको छोड़कर हम उनका दृष्टि-बिन्दु समझने में पूर्ण सफल नहीं हो सकते। सामाजिक कर्तव्य का आधार सामाजिकता आचार्य भिक्षु लौकिक व्यवहार को तोड़ने का आग्रह नहीं रखते थे। उन्हें वस्तुस्थिति को यथार्थ समझने का आग्रह था। एक जमाना ऐसा रहा जबकि सामाजिक दायित्व को निभाने के लिए समाज के नियमों को धर्म-पुण्य कहा गया? आज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003133
Book TitleAhimsa Tattva Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages228
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size10 MB
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