SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्म का रहस्य सूत्र ३१६ धड़कनों को बंद कर इसे शव जैसा बनाया जा सकता है। मन भी एक तरंग है। ध्यान की स्थिति में मन का सर्वथा विलय हो जाता है। इस स्थिति में मन अ-मन बन जाता है। यह स्थिति एक दिन नहीं, वर्ष भर रह सकती है। साधक वर्ष तक अ-मन की स्थिति में रह सकता है । मन को सर्वथा निष्क्रिय कर देना ही अ-मन की स्थिति है। जब साधक को यह पता लग गया कि तरंगों को रोका जा सकता है, तरंगों को समाप्त किया जा सकता है तो इस स्थिति में से ही मनुष्य को तरंगातीत बिन्दु का बोध हुआ। पर्याय से परे जो मूल तत्त्व है उसको ज्ञात हुआ। जिस किसी व्यक्ति ने इस सिद्धान्त को समझकर तरंग के निरोध का अभ्यास किया उसने विचारों का निरोध, संवेदनों का निरोध, चंचलता का निरोध करने का प्रयत्न किया। इस निरोध की स्थिति में उसे इस सचाई का बोध हुआ कि इस संसार में एक ऐसा भी तत्त्व है जो तरंगातीत है; तरंगों से परे है। दार्शनिक दृष्टि से कहा जा सकता है कि संसार में तरंगातीत कुछ, भी नहीं है। जिस आत्मा को हम तरंगातीत स्वीकार करते हैं, वह भी तरंगातीत नहीं है । इसे हम थोड़ा समझे । तरंगें दो प्रकार की होती हैं। पर्याय दो प्रकार के होते हैं-स्वाभाविक पर्याय और वैभाविक पर्याय। एक वे पर्याय हैं जो स्वभावतः प्रकट होते हैं । वे अनादि-अनन्त द्रव्य में प्रतिपल उत्पन्न होते रहते हैं और मिटते रहते हैं। ये स्वाभाविक तरंगें कभी समाप्त नहीं होती, उत्पन्न होती हैं और मिटती हैं। ये पर्याय हमारे लिए बाधक नहीं होते। हमें जिन पर्यायों और तरंगों से बाधित होना पड़ता है, जो हमारी मति में भ्रम पैदा करते हैं, वे हैं वैभाविक पर्याय । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि निमित्तों से उत्पन्न होने वाले पर्याय । इन वैभाविक पर्यायों को मिटाया जा सकता है। इनकी समाप्ति ही तरंगातीत अवस्था है। यह नहीं मान लेना चाहिए कि ध्यान करने के लिए बैठते ही सारे पर्याय समाप्त हो जाते हैं, तरंगें समाप्त हो जाती हैं। ध्यान की स्थिति में अनेक पर्याय चलते हैं; तरंगें चलती हैं। ध्यान पर किए गए वैज्ञानिक प्रयोगों से यह पता लगा कि विश्राम की स्थिति में जो लक्षण पैदा होते हैं, वे ही लक्षण ध्यान की स्थिति में प्रकट होते हैं। हमारे शरीर में 'लेप्टिक' एसिड है। विश्राम काल में उसकी स्थिति कम होती है, किन्तु ध्यान काल में नहीं होती। आठ घंटे के नींद के समय में जितनी मात्रा कम होती है, उतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy