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________________ २६८ किसने कहा मन चंचल है अतीत हमारा पीछा करता रहेगा तब तक हम जो चाहते हैं वह जीवन में घटित नहीं कर पाएंगे । अतीत का भूत हमारा पीछा कर रहा है, हम इससे पीछा छुड़ाएं । जब ऐसा होगा तभी हम स्वतंत्र रूप में अपना स्वतंत्र जीवन संचालित कर पाएंगे। वह हमारा पीछा करता रहे, हम उससे न बच पाएं तो हम स्वतंत्र व्यक्तित्व को नहीं पनपा सकेंगे। परतंत्रता का सामना हमें पग-पग पर करना पड़ेगा। सामायिक करने वाला व्यक्ति इस बात से बहुत सावधान और जागरूक रहता है, इसलिए वह कहता है-"करेमि भंते ! सामाइयं सव्व सावज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाएतिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि, करंतपि अन्न न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि निवामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि !''-"भंते मैंने आपका सान्निध्य प्राप्त किया है। मैंने समताभाव के साथ तादात्म्य स्थापित करने का संकल्प लिया है। मैंने सावध कर्मों और प्रवृत्तियों को त्यागने का संकल्प किया है। मैं कोई भी अकर्म नहीं करूंगा । कोई भी अवांछनीय कर्म नहीं करूंगा। मन से, वचन से और काया से मैं सावध कर्म न करूंगा, न कराऊंगा और न करने वाले का ही अनुमोदन करूंगा।" यह बहुत ही स्वस्थ संकल्प है। सान्निध्य भी उपलब्ध है। सब कुछ ठीक है । साथ-साथ साधक इस सचाई के प्रति जागरूक भी है कि मेरा यह संकल्प तब ही फलित हो सकता है जब अतीत का पीछा छूट जाए। यदि अतीत का पीछा नहीं छूटता है तो संकल्प नहीं चल सकता। टूट जाता है । इसलिए वह साधक दोहराता है --- 'पडिक्कमामि निदामि गरहामि अप्पाणं वोसिरामि ।' 'भंते ! अतीत में मैंने जो आचरण किए थे, मैं उनका प्रतिक्रमण करता हूं। उस भूमिका से अब मैं नयी भूमिका में लौट आया हूं। मैं जो विषमता की भूमिका में था अब समता की भूमिका में लौट आया हूं। मैं अपने से दूर चला गया था, अपने स्वत्व से दूर चला गया था, अपने घर को छोड़ बाहर चला गया था, अब मैं अपने घर में फिर लोट आया हूं। मैं निन्दा करता हूं। मैंने विषमता का जो आचरण किया था, आज मैं अनुभव करता हूं कि वह निंदनीय और कुत्सित था । मैं गर्दा करता हूं। सारा पापकर्म घृणित था । आदरणीय नहीं था।" 'अप्पाणं वोसिरामि'-"मैं अपने सारे पुराने व्यक्तित्वों का विसर्जन करता हूं। आज से मैं नए व्यक्तित्व का निर्माण करता हूं। व्यक्तित्व का नव निर्माण करता हूं और जो मैं था उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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