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________________ २२८ किसने कहा मन चंचल है भीतर प्रवेश करने लगा तब उसे वहां प्रकाश दिखाई दिया । एक दीया जल रहा था। उसने सोचा-प्रेतात्मा है। भला, जमीन के भीतर दीया कैसे जले? वह निकट गया। उसने देखा, न तेल है और न बाती। वह बिना तेल और बाती का दिया था, उसके बुझने का प्रश्न ही नहीं होता । वह जलता रहा है और जलता ही रहेगा । वह निरन्तर जलने वाला दीया था । उसको मनुष्य ने ही बनाया था। जब बाहर ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं तब क्या भीतर ऐसे दीप नहीं जलाए जा सकते, जो सहस्राब्दियों तक निरन्तर जलते रहें ? ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं। उनके लिए अलग प्रकार की बाती चाहिए, अलग प्रकार का तेल चाहिए, जो कभी समाप्त न हो । ऐसे दीपों के लिए हवा की आवश्यकता नहीं होती। इनको जलाने के विशेष ईंधन होते हैं। पहला इंधन है-श्वास । श्वास के ईंधन से ही ऐसे दीप जलाए जा सकते हैं जो निरन्तर जलते रहें। जिन लोगों ने श्वास की साधना नहीं की, श्वास को नहीं देखा, नहीं जाना, वे कभी भी प्रकाश-केन्द्र तक नहीं पहुंच सकते । क्योंकि जब तक श्वास को नहीं देखा जाता तब तक विकल्पों का शमन नहीं हो पाता और जब विकल्पों का शमन नहीं होता, स्मृति और कल्पना की उधेड़बुन समाप्त नहीं होती, तब तक निरन्तर जलने वाला, बाती और तेल से शून्य, दीप नहीं जलाया जा सकता। यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि जितने अर्हत्, तीर्थंकर या विशिष्ट ज्ञानी हुए हैं, विशिष्ट साधक हुए हैं, उन सबने श्वास का इंधन काम में लिया है । वर्तमान के विशिष्ट साधक भी इसी इंधन के सहारे प्रकाश तक पहुंचते हैं और अनागत काल में भी यही इंधन प्रकाश तक ले जाने वाला होगा । यही एकमात्र उपाय है। श्वास का संयम और श्वास की गति का परिवर्तन-साधना की यह प्रमुख शर्त है। श्वास को देखने की बात बहुत छोटी लग सकती है, किन्तु यह बहुत ही मूल्यवान् बात है । जिसे अब तक नहीं देखा, उसे अब देखना प्रारंभ कर रहे हैं । जिससे हम आज तक परिचित नहीं थे, हम उससे परिचित हो रहे हैं । जिसकी हमने उपेक्षा की उसकी अपेक्षा कर रहे हैं । जो हम छोटा श्वास लेते थे, आज हम उसे दीर्घ कर रहे हैं । प्राण वायु को हम भीतर बहुत कम ले जा रहे थे, अब उसको अधिक ले जाने का प्रयत्न कर रहे हैं। प्राणवायु के द्वारा जिन शक्ति केन्द्रों को हम विकसित नहीं कर पा रहे थे, अब पूरे प्राणवायु का प्रयोग कर हम उन शक्ति केन्द्रों को विकसित कर पाएंगे। मन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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