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________________ शक्ति-जागरण के सूत्र १३१ को एकाग्र कर, मन से उनकी प्रेक्षा कर, हम ऐसे द्वारों का उद्घाटन कर सकते हैं, ऐसी खिड़कियां खोल सकते हैं, जिनके द्वारा चेतना की रश्मियां बाहर निकल सकें और अपघटित को घटित कर सकें। - हम मूल को समझे। श्वास का संबंध है प्राण से, प्राण का संबंध है पर्याप्ति से अर्थात् सूक्ष्म प्राण से । यह जीवन के पहले ही क्षण में निर्मित हो हो जाता है प्राण को भी प्राण चाहिए । जो सूक्ष्म शरीर का प्राण है, उसे भी प्राण चाहिए । वह प्राण आकाश-मंडल से प्राप्त होता है। सारे शरीर में, सारे आकाश-मंडल में प्राणचक्र फैला हुआ है, आहार पर्याप्ति के योग्य वर्गणाएं सारे आकाश में फैली हुई हैं । ऊर्जा की या प्राणशक्ति की वर्गणाएं फैली हुई हैं, वे प्राप्त होती हैं श्वास के माध्यम से। हम केवल श्वास ही नहीं लेते, उसके साथ प्राण भी लेते हैं । शरीरशास्त्र के अनुसार भी जब हम श्वास लेते हैं तो ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं, नाइट्रोजन लेते हैं और भी न जाने कितनी गैसें और कितने तत्त्व ग्रहण करते हैं। किन्तु कर्मशास्त्र की भाषा में हम प्राण लेते हैं । श्वास के साथ जाने वाला प्राण उस प्राण को संवद्धित करता है, पोषण देता है । __ जैन आगमन भगवती और प्रज्ञापना में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जीव कब आहार लेता है और कितनी दिशाओं से आहार लेता है ? प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जीव पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व दिशा और अघोदिशा-छहों दिशाओं से आहार लेता है । वहां केवल आहार का प्रसंग ही नहीं है । रोम आहार भी अल्प मात्रा में होता है । वहां आहार का अर्थ ही है-प्राणतत्त्व का आहार । जीव जीवित रहने के लिए निरंतर बाहर से आहरण करता है, वह निरंतर प्राणऊर्जा लेता है । यह आहरण कभी नहीं रुकता। ऊर्जा या प्राण के आहरण का सशक्त माध्यम है श्वास । यह निरन्तर चलता है तो आहरण भी निरंतर चलता है। श्वास का संबंध है प्राण से, प्राण का संबंध है सूक्ष्म प्राण से और सूक्ष्म प्राण का संबंध है सूक्ष्म शरीर से, कर्म शरीर से । हम दीर्घश्वास लेते हैं, दीर्घश्वास की प्रेक्षा करते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि हम शक्ति के मूल स्रोतों को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं । दीर्घश्वास को देखने की बात बहुत छोटी-सी लगती है, किन्तु यह बहुत गहरी बात है। एक अंगुली को पकड़कर समूचे घर के स्वामी बन जाने की बात है। हम इस प्रक्रिया में केवल प्राण को ही नहीं पकड़ रहे हैं, समूची Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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