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________________ शक्ति-जागरण : मूल्य और प्रयोजन १११ उस धनुष्य पर बाण नहीं चढ़ा पाता । यदि धनुष्य अखंडित है, प्रत्यंचा टूटी हुई नहीं है तो फिर कोई भी युवा उस पर बाण चढ़ा सकता है। धनुष्य पुराना है, उससे बाण नहीं फेंका जा सकता । धनुष्य नया है, उससे बाण फेंका जा सकता है । इसका तात्पर्य यह है कि बालक के उपकरण पर्याप्त नहीं हैं । वह धनुष्य पर बाण नहीं चढ़ा सकता । युवा के उपकरण पर्याप्त हैं, वह धनुष्य पर बाण चढ़ा सकता है । यह अन्तर उपकरणों की पर्याप्तता या अपर्याप्तता का है, आत्मा का नहीं। बच्चे की आत्मा और युवा की आत्मा में कोई अन्तर नहीं है। किन्तु बच्चे के उपकरण अभी अपर्याप्त हैं, जैसे टूटे हुए धनुष्य के उपकरण अपर्याप्त हैं। नए धनुष्य के उपकरण पर्याप्त हैं जैसे युवा के उपकरण पर्याप्त होते हैं।" प्रश्न है उपकरण का, आत्मा का प्रश्न नहीं है । इस घटना से हम यह समझ सकते हैं कि हमारा जीवन तीन आयामों में चलता है-आत्मा, शरीर और शरीर की शक्ति । आगमों में कहा गया है कि हमारा जीवन 'त्रिदंड' है-एक दंड है शक्ति, एक है शरीर और एक है आत्मा । आत्मा बहुत दूर है। मैं क्षेत्रीय दूरी की बात नहीं कर रहा हूं। आत्मा इतना भीतर है, इतना भीतर कि वह चर्मचक्षुओं से दीखता ही नहीं। वहां हमारी पहुंच नहीं है। हम इन तीन आयामों में जीते है-आत्मा, शरीर और शक्ति । हमारी एक कठिनाई है। हम स्थूल को बहुत जानते हैं, सूक्ष्म को नहीं जानते । हम सूक्ष्म को जानने का प्रयत्न भी कहां करते हैं ? इसीलिए नहीं करते कि हमारा उससे परिचय नहीं है । जिससे परिचय नहीं होता है, उसके विषय में कुछ भी नहीं जाना जा सकता है। जिससे परिचय होता है, उसी के विषय में हम कुछ जान सकते हैं । हम सूक्ष्म से अपरिचित हैं। दर्शनशास्त्र में एक प्रश्न बहुत चचित होता रहा है कि सूक्ष्म का अस्तित्व है या नहीं ? जो इन्द्रियों के द्वारा दिखाई दे रहा है, वही है या उससे परे भी कुछ है ? इस चर्चा से दो शब्द प्रस्तुत हुए-इन्द्रियगम्य और अतीन्द्रियगम्य अथवा हेतुगम्य और अहेतुगम्य । ___ कुछ दार्शनिकों ने उसे ही सत्य माना जो इन्द्रियगम्य है । जो इन्द्रियगम्य होता है वह निश्चित ही हेतुगम्य होता है । उसे सिद्ध करने के लिए हेतु और तर्क दिए जाते हैं । हेतु और तर्क उसको गम्य कराने में सक्षम होते हैं, इसलिए वह हेतुगम्य कहलाता है । इस रेखा पर दार्शनिकों की एक विचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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