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________________ वर्ग २, बोल २०, २१ / ९१ उपलब्ध न होने से जीव अनाहारक रहता है । एक भव से दूसरे भव में जाने वाला जीव स्थूल शरीर को छोड़कर जाता है, किन्तु सूक्ष्म शरीर उसके साथ रहता है। इसलिए वह सशरीरी कहलाता है। पांच शरीरों में तैजस और कार्मण-ये दो शरीर सूक्ष्म हैं और ये तब तक जीव के साथ रहते हैं, जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता। २०. छास्थ के दो प्रकार हैं १. सकषायी (सराग) २. अकषायी (वीतराग) जब तक व्यक्ति को केवलज्ञान उपलब्ध नहीं होता, तब तक वह छदास्थ रहता है। 'अकेवली छद्मस्थ:'-यह परिभाषा भी उक्त तथ्य को ही पुष्ट करती है। यहां छद्म शब्द का अर्थ है घाती कर्मों का उदय । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय—ये चार कर्म घाती हैं । इन कर्मों की विद्यमानता में किसी को केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती । सराग और वीतराग शब्द सकषायी और अकषायी के ही पर्यायवाचक शब्द हैं। १. सकषायी- सकषायी छद्मस्थ पहले से दसवें गुणस्थान तक रहता है। २. अकषायी- ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक रहने वाला जीव अकषायी होता है। किन्तु यहां छद्मस्थ अकषायी की विवक्षा की गई है। यह केवल ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में ही होता कषाय शब्द से राग और द्वेष अथवा क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चारों का ग्रहण किया गया है। २१. वीतराग के दो प्रकार हैं १. छद्मस्थ वीतराग २. केवली वीतराग वीतरागता का अर्थ है राग और द्वेष का उपशम या क्षय । नौवें गुणस्थान में क्रोध, मान और माया का उपशम या क्षय हो जाता है। दसवें गुणस्थान में केवल सूक्ष्म लोभ बाकी रहता है । इसलिए उस गुणस्थान में रहने वाला जीव वीतराग नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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