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________________ ८६ / जैनतत्त्वविद्या आदि वृत्तियां होती हैं। उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये तो प्राणी का स्वभाव है। मनुष्य, पशु, वनस्पति आदि कुछ प्राणियों में संज्ञा का होना स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है और कुछ प्राणियों के व्यवहार में उसका थोड़ा भी आभास नहीं मिलता। १. आहार संज्ञा- भोजन के लिए गहरी अभीप्सा और आसक्ति का मनोभाव। २. भय संज्ञा- किसी कल्पित या वास्तविक भयोत्पादक स्थिति में होने वाली घबराहट। ३. मैथुन संज्ञा- वासना की वृत्ति, आत्मा को विस्मृत कर पर के साथ रमण करने का मनोभाव। ४. परिग्रह संज्ञा- पदार्थ के ग्रहण और संरक्षण की मनोवृत्ति और पदार्थ के प्रति होने वाला ममत्व। ५. क्रोध संज्ञा- राग-द्वेष-मूलक उत्तेजना रूप मनोभाव । ६. मान संज्ञा- अहंकार को उत्पन्न करने और बनाए रखने वाली मनोवृत्ति । छलना, वंचना आदि की मनोवृत्ति । ८. लोभ संज्ञा- लालसा बढ़ाने वाली मनोवृत्ति । ९. लोक संज्ञा- विशिष्ट या अर्जित मनोवृत्ति। १०. ओघ संज्ञा- सामान्य या नैसर्गिक मनोवृत्ति । उपर्युक्त दस संज्ञाओं में आठ संज्ञाएं ऐसी हैं, जो अपने नाम से ही अपने स्वरूप का बोध करा देती हैं। शेष दो-लोक संज्ञा और ओघ संज्ञा की परिभाषा उनके नाम से स्पष्ट नहीं हो पाती। लोक संज्ञा वैयक्तिक चेतना का प्रतीक है। जो आचरण सामुदायिक चेतना के कारण नहीं होते, किन्तु व्यक्ति की अपनी विशिष्ट रुचि या संस्कार के कारण होते हैं। आनुवंशिकता-माता, पिता के गुण-दोषों का संक्रमण, पूर्वजों की व्यावसायिक परम्परा का अनुगमन आदि कई आचरण ऐसे हैं, जो लोक संज्ञा के कारण होते हैं । ओघ संज्ञा सामुदायिकता की संज्ञा है। यह प्राणी की सामान्य वृत्ति है। जैसे—बेल सहारा मिलने से ऊपर चढ़ जाती है। भूकम्प या तूफान आने से पहले ही पशु-पक्षी उसका आभास पाकर सुरक्षित स्थान में पहुंच जाते हैं। यह ऐन्द्रियिक या मानसिक ज्ञान नहीं, किन्तु चेतना के अनावरण की स्वतंत्र क्रिया है। यह करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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