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________________ वर्ग १, बोल १४ / ३७ डॉक्टर नहीं आ सकता । इसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान की तुलना में साधारण अवधिज्ञान नहीं आ सकता। ___ केवलज्ञान-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा के द्वारा मूर्त और अमूर्त सभी पदार्थों की सब पर्यायों का साक्षात्कार करना केवलज्ञानोपयोग है। मतिज्ञान आदि चार ज्ञानों में कर्मों के क्षयोपशम में अन्तर रहने से उनके उपयोग में भी अन्तर रहता है । केवलज्ञान ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों के सर्वथा क्षय से प्राप्त होता है, इसलिए किसी भी केवलज्ञानी की उपयोग चेतना में कोई अन्तर नहीं रह सकता। तीन अज्ञान पांच ज्ञान की भांति तीन अज्ञान भी ज्ञानोपयोग के ही भेद हैं। मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग अज्ञान में ज्ञान चेतना का ही उपयोग होता है । पर मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के योग से ये अज्ञान कहलाते हैं। यहां प्रश्न हो सकता है ज्ञान सम्यदृष्टि का हो या मिथ्यादृष्टि का, वह अज्ञान कैसे हो सकता है ? सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी दोनों का ज्ञान क्षयोपशम भाव है, फिर भी पात्र-भेद से एक का ज्ञान, ज्ञान और दूसरे का ज्ञान, अज्ञान कहलाता है। यह बात व्यावहारिक दृष्टि से भी असंगत नहीं है । शराब की बोतल में शरबत डाल दिया जाए तो भी साधारणतया उसमें शराब का ही आभास होता है। तत्त्वतः वह शराब नहीं है। पर संगति के प्रभाव से शरबत शराब बन जाता है। नीच के सम्पर्क में उत्तम व्यक्ति के नीच बनने की बात नीतिसम्मत है। इसी प्रकार मिथ्यात्वी के संयोग से ज्ञान भी अज्ञान बन जाता है। अज्ञान के भेदों को परिभाषित करने की अपेक्षा नहीं है । क्योंकि मूलतः तो वे ज्ञान के ही भेद हैं। निष्कर्ष की भाषा में मिथ्यात्वी का इन्द्रियजन्य ज्ञान मति अज्ञान, उसका शास्त्रीय ज्ञान श्रुत अज्ञान और अतीन्द्रिय ज्ञान विभंग अज्ञान कहलाता है। ___मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान विशिष्ट साधकों को ही प्राप्त होते हैं। उन्हें मिथ्यादृष्टि व्यक्ति कभी नहीं पा सकता। इसलिए वे अज्ञान नहीं होते। चार दर्शन अनाकार उपयोग के चार भेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । ज्ञान और दर्शन-दोनों ही अवबोधक हैं फिर भी ज्ञान में स्थायित्व है और दर्शन तात्कालिक है। ज्ञान त्रैकालिक है और दर्शन केवल वर्तमान में होता है। इसलिए इनमें भेद किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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