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________________ २२ / जैनतत्त्वविद्या हैं। इस वर्ग में मिट्टी, मुरड़, हीरा, पन्ना, कोयला, सोना, चांदी आदि अनेक प्रकार के जीव हैं। मिट्टी की एक छोटी-सी डली में असंख्य जीव होते हैं। ये जीव एक साथ रहने पर भी अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता बनाये रखते हैं। पानी है जिन जीवों का शरीर, वे जीव अप्कायिक हैं। सब प्रकार का पानी, ओले, कुहरा आदि अप्काय के जीव हैं । मिट्टी की छोटी-सी डली की भांति पानी की एक बूंद भी अप्कायिक जीवों के असंख्य शरीरों का पिण्ड है। जिन जीवों का शरीर अग्नि है, वे जीव तेजस्कायिक कहलाते हैं। इस जीव-निकाय में अंगारे, ज्वाला, उल्का आदि का समावेश है। पानी की बंद की भांति अग्नि की एक छोटी-सी चिनगारी में भी अग्नि के असंख्य जीवों के शरीरों का अस्तित्व है। जिन जीवों का शरीर वायु है, वे जीव वायुकायिक कहलाते हैं। संसार में जितने प्रकार की वायु है, वह इसी काय में अन्तर्गर्भित है। इस काय में भी असंख्य जीव हैं, जो पृथक्-पृथक् शरीर में रहते हैं। जिन जीवों का शरीर वनस्पति है, वे जीव वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। इस काय में रहने वाले जीवों के दो प्रकार हैं—प्रत्येक वनस्पति और साधारण वनस्पति । प्रत्येक वनस्पति के जीव एक-एक शरीर में एक-एक ही होते हैं। एक जीव के आश्रित असंख्य जीव रह सकते हैं, पर उनकी सत्ता स्वतंत्र है। साधारण वनस्पति में एक-एक शरीर अनन्त जीवों का पिण्ड होता है । सब प्रकार की काई, कन्द, मूल आदि साधारण वनस्पति के जीव हैं। ___ त्रस नाम कर्म के उदय का वेदन करने वाले अथवा सुख-प्राप्ति और दुःख-निवृत्ति के उद्देश्य से गति करने वाले जीव त्रसकायिक कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों का समावेश इस वर्ग में होता है। इन छह जीव-निकायों के विवेचन से एक प्रश्न उठ सकता है कि पृथ्वी आदि सब जीव हैं और इन्हें उपयोग में लेने से हिंसा होती है । मुनि हिंसा से उपरत होते हैं। उनका काम कैसे चलेगा? प्रश्न सही है। मुनि न तो हिंसा करते हैं और न अपने लिए गृहस्थों से करवाते हैं । इस स्थिति में साधुओं के लिए किसी पदार्थ को निर्जीव नहीं किया जा सकता। किन्तु सहज रूप में गृहस्थ अपने लिए जो खाद्य पदार्थ बनाए, वे निर्जीव और एषणीय हों तो साधुओं के काम आ सकते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी, पानी आदि तब तक ही सजीव हैं, जब तक ये शस्त्र-परिणत नहीं हो जाते हैं। अग्नि में पकने या अन्य प्रकार की मिट्टी के स्पर्श से मिट्टी जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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