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________________ ३२ जैन दर्शन और विज्ञान पौद्गलिक पदार्थ और पौद्गलिक शक्तियों का ही रूपान्तरण होता है । इसलिए चैतन्य (आत्मा) को अभौतिक मानने पर 'अनश्वरता' का नियम जरा भी खंडि नहीं होता । दूसरे प्रकार से भी उक्त का खंडन किया जा सकता है । जैसे- "यह तर्क तभी प्रकार तभी कारगर हो सकता है, जबकि पहले यह मान लिया जाये कि जीव (चेतन) तथा जड़ सबकी व्याख्या भौतिक रासायनिक नियमों द्वारा हो सकती है । क्योंकि शक्ति की अनश्वरता का नियम भौतिक रासायनिक नियम ही है ।' किन्तु यह मान लेना तो भौतिकवाद को ही मान लेना है । अतएव यह तर्क भौतिकवाद को प्रमाणित करने के पहले ही उसे मान लेता है, जो कि उचित नहीं है । कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों का मत है कि उक्त नियम भौतिक रासायनिक जगत् के लिए ही है, जीव या चेतन-जगत के लिए नहीं । उस हालत में तो निस्सन्देह ही वह भौतिकवाद की पुष्टि नहीं कर सकता। इस प्रकार भौतिकवाद के समर्थन में दिये जाने वाले उक्त तर्क का निराकरण हो जाता है 1 द्वन्द्वात्मक भौतिक चेतन की सत्ता को इन्कार तो नहीं करता, किन्तु चेतना को भूत के गुणात्मक परिवर्तन से उद्भूत मानता है । द्वंद्वात्मक भौतिकवादियों का कहना है कि पृथ्वी की आयु २०,००० लाख वर्ष की है, जबकि मन (आत्मा) की आयु ५०० लाख वर्ष से पुरानी नहीं है । अर्थात् विश्व में पहले केवल भूत ही था और ५०० लाख पूर्व उस भूत के गुणात्मक परिवर्तन से चेतन की उतपत्ति हुई । आधुनिक विज्ञान, जैन दर्शन और सामान्य तर्क के आलोक में यदि हम इस मान्यता पर विचार करेंगे, तो सहसा ही इसकी निर्मूलता का पता चल सकता है। आधुनिक विज्ञान न तो विश्व को केवल पृथ्वी तक ही सीमित मानता है और न जीवन को भी । पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य आकाशीय पिण्डों पर भी जीव के अस्तित्व की संभावना की जा रही है। और भावी अन्तरिक्ष यात्राएं सम्भवत: इसके पुष्ट प्रमाण उपस्थित कर सकेंगी, ऐसी आशा की जाती है। पृथ्वी पर भी जीवन कब अस्तित्व में आया, यह अब तक निश्चित नहीं हो पाया है भूत के गुणात्मक परिवर्तन से जीव की उत्पत्ति 'क्यों और कैसे होती' इसका कोई उत्तर वैज्ञानिक १. देखें, एन इन्ट्रोडक्शन टू फिलोसोफी, ले० डब्ल्यू जेरूसलेम, पृ० १४७। २. दर्शन शास्त्र की रूपरेखा, लेखक राजेन्द्रप्रसाद, पृ० ७८-७९ भौतिकवाद की समर्थक तर्के और उसके निराकरण के लिए देखें, वही, पृ० ७२-७९ । ३. वैज्ञानिक भौतिकवाद, (प्रथम संस्करण) पृ० ३६ । ४. कोरोनेट, खण्ड २६, अंक ५ पृ० ३० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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