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________________ २४ जैन दर्शन और विज्ञान अस्तित्व का कोई विरोध ही नहीं होता है। क्योंकि विश्व की सभी प्रक्रियाओं का हमारा ज्ञान गणित से सम्बन्धित होने के कारण उसे गाणितिक कहा जा सकता है, फिर भी इसका तात्पर्य यह नहीं होता है कि विश्व वस्तुत: ही काल्पनिक है । इस दृष्टि से जीन्स का दर्शन भी वास्तविकतावाद का ही प्रतिपादन करता है और इस रूप में जैन दर्शन के साथ भी इसका साम्य हो जाता है । ४. जीन्स का अभिप्राय है कि हम वस्तु के मूल तत्त्व को न जानते हैं, न जान सकते हैं हम जो कुछ जानते हैं, वह तो केवल पदार्थों की प्रक्रियाएं हैं और उनका परस्पर का व्यवहार है।' इसका तात्पर्य यही होता है कि 'विश्व क्या है?' इस प्रश्न का उत्तर मनुष्य कदापि नहीं दे सकता है। मनुष्य तो केवल यही जान सकता है कि विश्व की प्रक्रियाएं किस प्रकार होती हैं? इस प्रकार जीन्स काण्ट के परमार्थवाद ( ट्रान्सेण्डेण्टलिजम) की ओर झुकते हुए से दिखाई देते हैं । जीन्स का दर्शन भी इसी अपेक्षा से जैन दर्शन के निकट कहा जा सकता है। जैन दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि ऐन्द्रिय ज्ञान (मति-श्रुत) के द्वारा पौद्गलिक जगत् के चरम रूप को नहीं जाना जा सकता। किंतु जैन दर्शन यह कभी स्वीकार नहीं करता कि हम कदापि और किसी भी प्रकार से वस्तु के मूल स्वरूप को नहीं जान सकते। अतीन्द्रिय और सकल ज्ञान के माध्यम से इसको भी जाना जा सकता है, फिर भी जीन्स का यह अभिप्राय तो सही लगता है कि हमारा ऐन्द्रिय ज्ञान और विज्ञान विश्व की प्रक्रियाओं और वस्तुओं के परस्पर व्यवहार तक ही सीमित रह जाता है । ५. 'पदार्थत्व' के विषय में जीन्स ने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे वस्तुत: ही अत्यंत अस्पष्ट हैं। एक ओर तो जीन्स पदार्थत्व को मानसिक कल्पनामात्र कहते हैं और दूसरी ओर उसको ही पदार्थों का इंद्रियों के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव बताते हैं । यदि 'पदार्थत्व' पदार्थों का ही प्रभाव हो, तो बिना 'पदार्थत्व' पदार्थ कैसे रह सकते हैं, यह समझ में आना कठिन है । अल्प पदार्थत्व और अधिक पदार्थत्व की चर्चा भी वस्तुत: ही अस्पष्ट और व्यर्थ - सी प्रतीत होती है । जैन दर्शन में द्रव्य, द्रव्यत्व आदि की स्पष्ट परिभाषाएं मिलती हैं और 'पदार्थ' का वस्तु- सापेक्ष अस्तित्व अनुभव और तर्क के आधार पर सिद्ध किया गया है । पदार्थो को केवल मानसिक कल्पना के रूप में मानना किसी भी रूप में सम्भव नहीं लगता । इस दृष्टि से जैन दर्शन और जीन्स का दर्शन परस्पर में विरोधी मन्तव्य उपस्थित करते हैं । जीन्स के दर्शन की समीक्षा के उपसंहार में यह कहा जा सकता है कि यदि जीन्स अपनी व्यक्तिगत रूढ़ विचारधाराओं से अपने दर्शन को मुक्त रखते और वास्तविक वैज्ञानिक तथ्यों को ही अपने दर्शन में स्थान देते, तो सम्भवतः उनका १. दी मिस्टीयर्स युनिवर्स, पृष्ठ १२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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