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________________ जैन दर्शन और विज्ञान में परमाणु ३३९ जैन दर्शन बताता है कि थोड़े से परमाणु विस्तृत आकाश - खंड को घेर लेते हैं, जिसे परमाणुओं का व्यायतीकरण कहते हैं और कभी-कभी वे परमाणु घनीभूत हो कर बहुत छोटे से आकाश देश में समा जाते हैं, जिसे परमाणुओं का समासीकरण कहते हैं। आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है। हाल ही में खोजे गये सब-से-छोटे तारे के एक क्यूबिक इंच में १६७४० मन भार आंका गया है। यह सूक्ष्म परिणमन-क्रिया विज्ञान से मेल खाती है । अणु के दो अंग होते हैं, एक मध्यवर्ती नाभिक (न्यूक्लीयस) जिसमें धनाणु (प्रोटॉन्स) और न्यूटॉन्स होते हैं और दूसरा बाह्य कक्षीय कवच (ऑर्बिटल शेल) जिसमें ऋणाणु चक्कर लगाते हैं । नाभिक का घनफल पूरे अणु के घनफल से बहुत ही कम होता है और जब कुछ कक्षीय कवच अणु से विच्छिन्न हो जाते हैं तो अणु का घनफल कम हो जाता है। ये अणु विच्छिन्न अणु कहलाते हैं। ज्योतिष - सम्बन्धी अनुसंधानों से पता चलता है कि कुछ तारे ऐसे हैं जिनका घनत्व हमारी दुनिया की घनतम वस्तुओं से भी २०० गुणित है । एडिंग्टन ने एक स्थान पर लिखा है कि एक टन (२८ मन ) नाभिकीय (न्यूक्लीअर) पुद्गल हमारे वेस्ट कोट की जेब में समा सकता है। कुछ ही समय पूर्व एक ऐसे तारे का अनुसन्धान हुआ है जिसका घनत्व ६२० टन (१७३६० मन) प्रति घन इंच है। इतने अधिक घनत्व का कारण यही है कि वह तारा विच्छिन्न अणुओं से निर्मित है। उसके अणुओं में केवल नाभिक कण ही हैं, कक्षीय कवच नहीं । जैन सिद्धांत की भाषा में इसका कारण अणुओं का सूक्ष्म परिणमन है I परमाणु ऊर्जा और तेजोलेश्या परमाणु - शक्ति (न्यूक्लीअर एनर्जी) और तेजोलेश्या में यत् किंचित् साम्य है । भगवती सूत्र शतक १५ में तेजोलेश्या की प्रक्रिया प्रतिपादित है । "जो व्यक्ति छह महीने तक बेले का तप करे, ऊर्ध्वबाहु रह कर हमेशा सूर्य की आतापना ले, और पारणे में एक मुट्ठी उड़द और एक चुल्लू गरम पानी ग्रहण करे, वह तेजोलेश्या को प्राप्त करता है ।" तेजोलेश्या परमाणु-शक्ति की भांति ध्वंसकारी बन सकती है। तेजोलेश्या पौद्गलिक है और वह विस्तृत भाव को प्राप्त होकर अंग, बंग, मगध, मलय, मालव- जैसे १६ देशों को एक साथ भस्म कर देती है । कुद्ध अनगार में-से तेजोलेश्या निकल कर दूर गयी हुई दूर गिरती है, पास गयी हुई पास गिरती है। वह जहां गिरती है, वहां उसके अचित्त पुद्गल प्रकाश करते यावत् तपते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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