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________________ २२४ जैन दर्शन और विज्ञान किए, यह सम्भव है कि उसका बुरा कर्म अच्छे में संक्रांत हो जाए । यह संक्रमण का सिद्धांत है । 1 यह संक्रमण का सिद्धांत है । कर्म के विषय में यह एक अपवाद है और यह पुरुषार्थ से सम्भव बना है। जैन दर्शन ने निरन्तर पुरुषार्थ पर बल दिया । भगवान महावीर ने कहा- पुरुष ! तु पराक्रम कर ! यह परम पुरुषार्थ की प्रेरणा भाग्यवाद का चकनाचूर कर देने वाली प्रेरणा है । भारतीय चिंतन और दर्शन में पुरुषार्थवाद पर जितना बल महावीर ने दिया, उतना किसी दूसरे ने दिया या नहीं, यह खोज का विषय है । नियामक कौन ? कर्मवाद और पुरुषार्थवाद - इन दोनों का अस्वीकार है ईश्वरवाद । जहां ईश्वरवाद है वहां न कर्मवाद की आवश्यकता है और न पुरुषार्थ की आवश्यकता है। जब ईश्वरवाद में ईश्वर के द्वारा सही अवस्था नहीं बैठी तो कर्मवाद को भी बीच में लाना पड़ा। पूछा गया—अच्छा और बुरा फल आदमी कैसे भुगतता है ? उत्तर दिया - ईश्वर 'भुगताता है। पुनः प्रश्न उभरा - ईश्वर किसी को अच्छा या बुरा फल क्यों देता है ? उत्तर दिया गया- व्यक्ति जैसा कर्म करता है, ईश्वर उसको वैसा ही फल देता है । गया कर्मवाद के बिना व्यवस्था संगत हो ही नहीं सकती। इसलिए ईश्वरवाद में भी कर्मवाद को मानना पड़ा । आखिर सब कुछ कर्मवाद से होना है। अच्छे और बुरे का नियामक कर्म है तो उसके लिए किसी ईश्वर को बीच में लाने की आवश्यकता नहीं है । कर्मवाद से जो हो जाता है उसके लिए किसी ईश्वर की और अपेक्षा करना प्रक्रिया - गौरव है। तर्कशास्त्र में कहा गया--- प्रक्रियागौरवं यत्र, तं पक्षं न सहामहे । प्रक्रियालाघवं यत्र, तं पक्षं रोचयामहे । जिसमें प्रक्रिया का गौरव होता है, उस पक्ष को सहन नहीं किया जा सकता । जिसमें प्रक्रिया का लाघव होता है, वही पक्ष रुचिकर हो सकता है । विज्ञान भी प्रक्रिया- गौरव को स्वीकार करता है। न्यूनतम नियमों से किसी प्रक्रिया की व्याख्या करना वैज्ञानिक सिद्धांत है । वास्तविक सचाई : व्यावहारिक सचाई 'सब जीव समान है' यह निश्चयनय की बात है, वास्तविक सचाई है, व्यावहारिक सचाई नहीं है । व्यवहारनय की दृष्टि से सब जीव समान नहीं है । उनमें भेद है और वह भेद कर्मकृत है-कर्म के द्वारा वह भेद किया गया है। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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