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________________ विज्ञान के संदर्भ में जैन जीवन-शैली १४१ निर्मित है। प्रत्येक ऊतक कोशिकाओं से निर्मित है। इन कोशिकओं में चलने वाली जैविक क्रियाओं से विष-द्रव्य की उत्पति होती रहती है। इसके साथ अपनी खाने -पीने की गलत प्रणाली तथा रहन-सहन की गलत आदतों से भी विष-द्रव्यों की उत्पति होती है। ये सारे विष-द्रव्य यदि किसी भी कारण से बाहर निष्कासित न हों, तो उस स्थिति को “विषाक्तता'' (टोक्सीमिया) कहा जाता है। उसे ही हम "रोग'' या "बीमारी" के रूप में भोगते है। विष-द्रव्यों की अशुद्धियों को निष्कासन करने की शरीर की प्राकृतिक प्रक्रिया तो बीमारी में भी चालू ही रहती है। उदाहरणार्थ-जुकाम में शरीर श्लेष्म के रूप में विष-द्रव्यों का बाहर निष्कासन करता रहता है। शरीर में अपने आपको स्वस्थ रखने की आन्तरिक शक्ति मौजूद होती है। कुछ अपवादों को छोड़कर वह स्वस्थ रहता ही है। यदि मनुष्य अपने शरीर के अवयवों का दुरुपयोग न करे या उन पर अत्याचार न करे, तो शरीर स्वत: ही स्वस्थ रहेगा। परन्तु खाने-पीने की गलत आदत, जिह्वा का स्वाद, शरीर-विज्ञान के बोध का अभाव आदि कारणों से मनुष्य प्राय: अपने शरीर पर ऐसे अत्याचार करता है जिससे शरीर अस्वस्थ हो जाता है। हमारा आहार कैसा होना चाहिए? इस प्रश्न पर मुख्य रूप से दो दृष्टिकोणों से विचार-विमर्श हुआ है। स्वास्थ्य और साधना। स्वास्थ्य की दृष्टि से आहार का बहुत बड़ा मूल्य है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए इसका इतना मूल्य है, पर मानसिक और अध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए उसका कितना मूल्य होगा, यह सब नहीं जानते। ___ शरीरिक स्वास्थ्य का मूल आधार है-संतुलित भोजन । प्रोटिन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, लवण, क्षार और विटामिन्स-ये उचित मात्रा में ग्रहण किए जाते हैं, वह संतुलित भोजन माना जाता है। इससे शरीर स्वस्थ और क्रिया करने में सक्षम रहता है। भोजन का मन की क्रियाओं पर भी बहत असर होता है, क्योंकि मस्तिष्क की रासायनिक प्रक्रिया भोजन से प्रभावित होती है। संतुलित भोजन का उद्देश्य है-शरीर स्वस्थ रहे तथा मन विकृत, उत्तेजित या क्षुब्ध न हो । बीमारी पैदा होने का बहुत बड़ा कारण है-अहितकार और अपरिमित भोजन । एक आचार्य ने लिखा है हियाहारा मियाहारा अप्पाहारा य जे नारा । न ते विज्जा मिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा।।" -जो हित, मित और अल्पमात्रा में भोजन करते हैं, उनकी चिकित्सा वैद्य नहीं करते, वे स्वयं अपने चिकित्सक हैं। भोजन स्वास्थ्य देता है और भोजन स्वास्थ्य बिगाड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
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