SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११६ जैन दर्शन और विज्ञान भी हैं, दाएं भी हैं, और बाएं भी हैं। जब समस्त ऋजुता आदि विशिष्ट गुणों की साधना के द्वारा वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं, 'करण' बन जाते हैं, तब उनमें अतीन्द्रिय चेतना प्रकट होने लग जाती है। यह कोई आकस्मिक संयोग नहीं है। यह एक स्थाई विकास है। एक बार चैतन्य-केन्द्र के सक्रिय हो जाने पर जीवन भर उसकी सक्रियता बनी रहती है। अतीन्द्रिय-ज्ञानी जब चाहे तब अपनी अतीन्द्रिय चेतना का करणभूत चैतन्य-केन्द्र के द्वारा उपयोग कर सकता है। वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरस्थ पदार्थ का साक्षात् कर सकता है। अतीन्द्रिय ज्ञान की जागृति का एक माध्यम है-प्रेक्षाध्यान। प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया प्रेक्षाध्यान की दो पद्धतियां है१. संपूर्ण शरीर-प्रेक्षा। २. चैतन्य-केंद्र प्रेक्षा। संपूर्ण शरीर की प्रेक्षा करने से पूरा शरीर करण' बन जाता है, अतीन्द्रिय-ज्ञान का साधन बन जाता है। इसमें दीर्घकाल, गहन अध्यवसाय, सघन श्रद्धा और धृति की अपेक्षा होती है कुछ महीनों और वर्षों की प्रेक्षासाधना से पूरा शरीर 'करण' नहीं बन जाता। उसके लिए बहुत बड़ा अभ्यास जरूरी होता है। इसकी अपेक्षा किसी एक चैतन्य-केन्द्र की प्रेक्षा का अभ्यास कुछ सरल होता है। पूरे शरीर की प्रेक्षा का परिपाक होने पर पूरे शरीर से अतीन्द्रियज्ञान की प्रकाश-रश्मियां बाहर फैलती हैं। चैतन्य-केन्द्र की प्रेक्षा से जो चैतन्य-केन्द्र जागृत होता है, उसी से अतीन्द्रियज्ञान की प्रकाश-रश्मियां बाहर फैलती हैं। अतीन्द्रियज्ञान की दोनों प्रकार की उपलब्धियां ध्यान के दो भिन्न कोटिक-अभ्यासों पर निर्भर हैं। जिस व्यक्ति की जैसी श्रद्धा, रुचि, शक्ति और धृति होती है वह उसी पद्धति का चुनाव कर लेता है कोई संपूर्ण शरीर प्रेक्षा का और कोई चैतन्य-केन्द्र प्रेक्षा का। प्रेक्षाध्यान की निष्पत्ति प्रेक्षाध्यान से दो कार्य निष्पन्न होते हैं१. करण-निष्पत्ति २. आवरण-विवि जहां अवधान नियोजित होता है वह शरीर-भाग अवधिज्ञान के लिए 'करण' या माध्यम बन जाता है। प्रेक्षाध्यान का अवधान राग द्वेष-रहित, समभावपूर्ण होता है, उससे ज्ञान और दर्शन का आवरण विशुद्ध होता है। आवरण के विशुद्ध होने पर जानने की क्षमता बढ़ती है और शरीर-भाग के विशुद्ध होने पर उस विकसित ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003127
Book TitleJain Darshan aur Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni, Jethalal S Zaveri
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Science
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy