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________________ ३० अप्पाणं सरणं गच्छामि को ही गुरु मानूं तो क्यों मानूं ? दूसरे को गुरु क्यों नहीं मानूं ? महावीर ने भी यही सिखाया - संपिक्खए अप्पगमप्पएणं- आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो । स्वयं सत्य को खोजो । यदि महावीर यह कहते - सत्य खोजने का अधिकार तुम्हें नहीं है। तुम बस मुझे मानते रहो, मानते चलो, आंख मूंदकर मेरे पीछे चलते चलो । 'यदि यह होता तो महावीर को गुरु मानने के लिए भी मेरा मन नहीं करता । किन्तु मैं महावीर को गुरु इसलिए मानता हूं कि उन्होंने कहा - 'तुम स्वयं सत्य को खोजो। तुम स्वयं अपने पथ का निर्माण करो। अपने पथ पर स्वयं चलो।' मैं मानता हूं कि जो गुरु या आचार्य अपने शिष्य को इतनी स्वतन्त्रता नहीं देता, वहां एक प्रबुद्ध साधक उनका शिष्यत्व स्वीकार नहीं कर सकता। दूसरों पर आस्था को टिकाने की बात में बहुत बड़ा खतरा है । कोई भी सत्यनिष्ठ आचार्य अपने शिष्य को यही बताएगा कि अपने अस्तित्व को ही आस्था का केन्द्र बनाओ। मेरे से कोई पथ-दर्शन लेना चाहो तो लो । स्वयं चलो । स्वयं खपो और स्वयं तपो । तब ही सत्य उपलब्ध होगा। गुरु बांधता नहीं, मुक्त करता है। गुरु बांधता नहीं, खोलता है मेरे गुरु ने मुझे बांधा नहीं । मैं अपनी अवस्था के दो दशक पूर्ण कर तीसरे दशक में चल रहा था । उस समय मैंने साम्यवादी साहित्य पढ़ा, स्टालिन और लेनिन को पढ़ा, नास्तिक साहित्य का गहरा अध्ययन किया। आचार्यश्री ने मुझे कभी नहीं रोका। उन्होंने यह कभी नहीं कहा - 'तुम साम्यवादी साहित्य पढ़ते हो तो साम्यवादी न हो जाओ।' वे पढ़ने की प्रेरणा देते रहे। लोगों ने मुझे साम्यवादी, नास्तिक आदि उपाधियों से उपमित किया, पर आचार्यश्री ने उनकी बातों को बचपने की बातें मात्र माना । गंगाशहर की घटना है। एक बार मंत्री मुनि ने मुझे पूछा - 'आजकल क्या पढ़ रहे हो ?' मैंने कहा - 'कर्म-ग्रंथों का अध्ययन कर रहा हूं, अन्यान्य दर्शनों को पढ़ रहा हूं।' उन्होंने तत्काल आचार्यश्री को संबोधित कर कहा - 'गुरुदेव ! यह कर्म-ग्रंथों को और अन्यान्य दर्शनों को पढ़ रहा है, कहीं मूल श्रद्धान में कमजोरी तो नहीं है? कहीं ऐसा न हो कि पढ़ते-पढ़ते अपनी दिशा ही बदल दे ।' आचार्यश्री ने कहा - 'कोई चिन्ता की बात नहीं है । मूल दृढ़ है ।' आचार्यश्री ने मुझे कभी नहीं रोका। गुरु वह होता है जो कभी रोकता नहीं । उसमें यह कमजोरी नहीं होती कि शिष्य अन्यान्य चीजें पढ़ेगा तो दूसरी दिशा में बह जाएगा, भटक जाएगा। गुरु यदि रोकता है तो मैं समझता हूं कि उस गुरु की गुरुता में कहीं कमी है, उसके मन में भय है। जो गुरु अपने शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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