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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा २४३ शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायितो मे। प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥' जैसे सिंह बलपूर्वक हाथी पर टूट पड़ता है वैसे ही बाणों से विद्ध भगवान् श्रीकृष्ण भीष्म को मारने के लिए दौड़ पड़े। स्तुतिकर्ता जब भाव की उच्चाइयों पर पहुंच कर अखण्डानन्द स्वरूप में निमज्जित हो जाता है तब उसके सारे बन्धन खण्डित हो जाते हैं और वह रसेश्वर श्रीकृष्ण में ही भेद-भ्रम से रहित हो जाता है तमिममहमजं शरीरभाजां हृदि हदिधिष्टितमात्मकल्पितानाम् । प्रतिदशमिव नकधार्कमेकं समधिगतोऽस्मि विधतभेदमोहः ॥२ ३. अन्तर्वत्ति की प्रधानता __गीतिकाव्य में अन्तर्वृत्ति की प्रधानता होती है। स्तुतियों में यह तत्त्व भूरिशः परिलक्षित होता है। जब भक्त अपने बाद्य वृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाता है तब उसके हृदय से, अपने उपास्य के प्रति समर्पित स्तुति के श्लोक स्वतः निर्गत होने लगते हैं। पितामह भीष्म सब ओर से इन्द्रियों को हटाकर वृत्तियों को अन्तर्मुखी बनाते हैं, भक्तराज गजेन्द्र बाह्य वृत्तियों को, मन को हृदय में एकाग्र कर स्तुति करता है एवं व्यवसितो बुद्धया समाधाय मनो हृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम् ॥ ४. पूर्वापर सम्बन्धविहीनता अथवा निरपेक्षता निरपेक्षता संस्कृत गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषता है। गीतिकाव्य के प्रत्येक श्लोक स्वतन्त्र रूप से रसबोध कराने में समर्थ होते हैं। श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में यह विशिष्टता पायी जाती है। प्रत्येक स्तुत्यात्मक श्लोक एक दूसरे से स्वतंत्र रूप में रस को उपचित करते हैं, रसावबोध कराते हैं । वेणुगीत का अधोलिखित श्लोक अओले ही हृदय में रस का संचार कर देता है.---- गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् । भुङक्ते स्वयं यदवशिष्टरसं हृदिन्यो हृष्यत्त्वचोऽश्रुमुमुर्चुस्तरवो यथाऽऽर्याः॥ ५. भावातिरेकता भावातिरेकता गीतिकाव्य का प्रमुख गुण है। स्तुतियों में यह तत्त्व १. श्रीमद्भागवत १.९.३८ २. तत्रैव १.९.४२ ३. तत्रैव ८.३.१ ४. तत्रैव १०.२१.९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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