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________________ १७५ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना लोक व्यवहार से भिन्न है और केवल आनन्द रूप है।' साहित्यदर्पण में सत्त्वोद्रेक को रस के हेतु के रूप निरूपित किया गया है और रस को अखण्ड, स्वप्रकाशानन्द, चिन्मय, वेद्यान्तरस्पर्शशून्य, ब्रह्मानन्द सहोदर तथा लोकोत्तर चमत्कारप्राण कहा गया है। लोक में जिस प्रकार की सुख-दुःखात्मक अनुभूति होती है वैसी अनुभूति काव्य नाटकों में नहीं होती, वहां प्रत्येक दशा में विलक्षण आनन्द की ही चर्वणा होती है । इसलिए रस को अलौकिक कहा गया है । यह लोक की स्वार्थ सीमा से ऊपर उठकर स्वप्रकाशानन्द, वेद्यान्तरस्पर्शशुन्य एवं चिन्मय रूप होता है। आनन्दात्मक एवं विलक्षण होने से रस को "लोकोत्तरचमत्कार-प्राण' संज्ञा से अभिहित किया गया है । रस से उत्पन्न आनन्द बाह्य इन्द्रियगत अनुकूल वेदना जन्य आनन्द से सर्वथा भिन्न होता है । रस को काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकृत किया गया है। कोई भी कृति रस के बिना काव्यत्व को नहीं प्राप्त कर सकती। रसबोध में वासना का रहना आवश्यक है। बिना वासना के अन्य कारणों के रहते हुए भी रसबोध नहीं हो सकता है। पूर्व में निरूपित किया गया है कि विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी या सहकारी भावों के सहयोग से व्यक्त रत्यादि रूप स्थायी भाव ही रस है । प्रसंगानुसार स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव यहां विवेच्य हैं रस-प्रक्रिया में विभाव को दो रूप-आलम्बन तथा उद्दीपन में विभाजित किया गया है। ये बाह्य कारण समझे जाते हैं । रसानुभूति का आभ्यन्तर और मुख्य कारण स्थायी भाव है। यह वासना स्वरूप सदा प्रत्येक मनुष्य के हृदय में पूर्व से विद्यमान रहता है और समय पाकर या अनुकूल अवस्था से संयुक्त होकर अभिव्यक्त हो जाता है। यह अभिव्यक्ति ही आस्वाद्य होने के कारण रस शब्द से अभिहित की जाती है। आचार्य मम्मट के शब्दों में "व्यक्तः स तैः विभावाद्यैः स्थायीभावो रसस्मृतः । स्थायी भाव समस्त मानव जाति में स्वाभाविक वासना रूप में विद्यमान रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति के मन में जन्म से ही ये भाव रहते हैं। वासना रूप में विद्यमान किसी निमित्त को पाकर उबुद्ध हो जाते हैं और - - - -- - १. काव्यप्रकाश ४ अभिनवगुप्न का रस सिद्धान्त २. साहित्य दर्पण ३.२ ३. मम्मट, काव्यप्रकाश ४.४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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