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________________ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १६९ मण्डित" के रूप ग्रहण करे या “मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल" के रूप में, पर प्रभु के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान अवश्य होता है । इसी प्रकार देवकी-वसुदेव भी भक्ति करते हैं। जब भगवान् श्रीकृष्ण उनके यहां अवतरित होकर अपने विश्वरूप का दर्शन कराते हैं तो देवकी डर जाती है और उन्हें अपने शिशु के रूप में ही दर्शन करना चाहती है । माता यशोदा की तो वात्सल्य भक्ति सम्पूर्ण भक्तिसंसार में अनूठी है। वह एक क्षण भी अपने माखनचोर का वियोग सहन नहीं कर सकती है । माता देवकी को यह सह्य नहीं कि उसका शिशु चतुर्भुज रूप में रहे उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् । शंखचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ एक दिन माता यशोदा अपने लाला को स्तन-पान करा रही थी। अचानक जम्हाई लेते समय अपने लाला के मुख में सम्पूर्ण विश्व को देखकर आश्चर्यित हो जाती है। खं रोदसी ज्योतिरनीकमाशाः सूर्येन्दुवह्निश्वसनाम्बुधींश्च । द्वीपान् नगांस्तदुहितुर्वनानि भूतानि यानि स्थिरजङ्गमानि ॥ ४. दास्यभाव दास्य भाव में स्वामी-सेवक भाव से भक्ति की जाती है। अखिलानंद परमब्रह्मपरमेश्वर को सेव्य मानकर स्वयं भक्त उन्हीं की चरण सेवा में अपने आपको नियोजित कर अपना जीवन सफल कर लेता है । वृत्रासुर, हनुमान, अक्रूर और विदुर आदि की स्तुतियों में दास्यभाव की प्रधानता है। भक्तराज वृत्रासुर उपास्य के चरणों में जन्म-जन्मान्तर के लिए अपने आपको समर्पित कर देता है । वह सिर्फ भगवदासों का दास बनना चाहता है-प्रभो ! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि अनन्य भाव से आपके चरण कमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो । मेरा मन आपके गुणों का स्मरण करता रहे मेरी वाणी उन्हीं का गुणगान करे तथा शरीर आपकी सेवा में लगी रहे। यहां दास्य भाव के अतिरिक्त अनन्य शरणागति या प्रपत्ति भाव की प्रधानता है । किम्पुरुष वर्ष में महाभागवत श्रीहनुमानजी भगवानादि पुरुष लक्ष्मणाग्रज सीताभिराम श्रीराम की स्तुति दास्य भाव से करते हैं। रामभक्तों में हनुमानजी का स्थान अग्रणी है। वे ज्ञानियों एवं योगियों में श्रेष्ठ और १. श्रीमद्भागवत १०.३.३० २. तत्रव १०.७.३६ ३. तत्रैव ६.११.२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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