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________________ दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां १२३ सभी भूतों के अन्तर्वहि अवस्थित, विश्वेश, और विश्वरूप हैं। आप अकिंचनधन, विश्वात्मा, मायाप्रपंच से अस्पृष्ट, स्वयं स्थित, परमशांत, अनादि और अनन्त हैं । ' बुद्धि की जाग्रतादि सम्पूर्ण अवस्थाओं से रहित, शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित हैं । नित्यमुक्त, सर्वज्ञ, परमात्म स्वरूप, निर्विकार, आदिपुरुष, जगत् के कारण, अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्दमय, निर्विकार हैं । प्रकृति आदि से परे एवं अनन्त विभूतियों से पूर्ण हैं । संसार और उसके कारण से परे स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध, सतात्मक, आत्मभूत, नाम-जन्म-कर्म-रूप आदि से रहित सबके साक्षी एवं मनवाणी चित्त से अत्यन्त दूर हैं, अविनाशी सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त इन्दियातीत एवं अत्यन्त सूक्ष्म हैं ।" आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के निधि ज्ञान - अनुभव एवं अनन्त महिमाशक्ति सम्पन्न, काल, सूक्ष्म, कूटस्थ, प्रमाणमूल, कवि, सर्वाध्यक्ष, गुणप्रदीप, गुणों और वृत्तियों के साक्षी, गुणों से रहित होने पर भी गुणों के द्वारा विश्व की उत्पत्ति, स्थिति, और प्रलय की लीला करते हैं । आप सत्य संकल्प, सत्य के द्वारा प्राप्तव्य, त्रिकाल में सत्य, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश के सत्यकारण, अन्तर्यामी, शरणागतों के रक्षक एवं परमार्थस्वरूप हैं । तथा जगत् हितार्थ सगुणरूप में अवतरित होते हैं । अद्वैत की प्रतिष्ठा श्रीमद्भागवत में अद्वैत तत्त्व (ब्रह्म) की प्रतिष्ठा की गई है । वह एक है लेकिन बहुत रूपों में परिलक्षित होता है । " एकं सद्विप्रावहुधावदन्ति " इस वेद वचन की स्तुतियों में विस्तृत व्याख्या की गई है । जैसे एक ही सूर्य अनेक आंखों से अनेक रूपों में दिखते हैं वैसे ही भगवान् अपने द्वारा सृष्ट शरीरधारियों के हृदय में अनेक रूप में जान पड़ते हैं । वस्तुतः वे एक और सबके हृदय में विराजमान हैं ।" आप एक ही हैं परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अन्तर्यामी रूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं । अनेक देवों के रूप में स्थित होकर भासते हैं जैसे तरह १. श्रीमद्भागवत १.८.२७ २. तत्रैव ४.२०.३१ ३. तत्रैव ४.९.१६ ४. तत्रैव ४.३०.३१ ५. तत्रैव ५.३.३,२१ ६. तत्रैव १०.१६.४८ ७. तत्रैव १०.२.१ ८. तत्रैव १.९.४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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