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________________ दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां १२१ रश्मियों में जल का भ्रम हो जाता है उसी प्रकार सत्यस्वरूप परमात्मा में माया के कारण जगत् का भ्रम हो जाता है । यह जगत् (सृष्टि) त्रिगुणात्मक किंवा जाग्रत स्वप्नसुषुप्ति रूप है। मिथ्या होने पर भी अपनी अधिष्ठान सत्ता से सत्यवत् प्रतीत होता है। माया विश्वविमोहिनी है । बड़े-बड़े महात्माओं को भी अपने जाल में फंसा लेती है। यह प्रभु परमेश्वर की शक्ति है, लेकिन स्वयं परमेश्वर इससे सर्वथा असंपृक्त हैं। ईश्वर तत्त्व पर भी प्रकाश पड़ता है। ब्रह्मा, हिरण्यगर्भ आदि ईश्वरपदवाच्य हैं । इसे हम विराट भी कह सकते हैं। ईश्वर की उत्पत्ति स्वराट् से होती है। ईश्वर शासन करता है, सृष्टि स्थिति और प्रलय को धारण करता है। ___ जीव, तत्त्व वस्तुतः परमेश्वर का ही अंश है लेकिन माया के कारण वह अपने को नश्वर, मरणधर्मा, और अल्पसत्त्व समझता है। वस्तुतः यह उसका स्वरूप नहीं है, केवल भ्रमाभास मात्र है। संसारबन्धन के छटते ही वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है—किंवा अपने वास्तविक रूप में स्थिर हो जाता अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् । एवं समीक्षन्नात्मानमात्मन्याधाय निष्कले ॥ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में ब्रह्म, ईश्वर, जगत्, जीव, त्रिगुण कारण, प्रकृति, माया आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। ब्रह्म (परमेश्वर) श्रीमद्भागवत की सभी स्तुतियों में परमब्रह्मपरश्मेवर के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । सभी का एक मात्र प्रतिपाद्य वही निर्विकार, अनन्त, सच्चिदानन्दस्वरूप है । श्रीमद्भागवत का प्रारम्भ और अंत उसी के स्वरूप वर्णन के साथ होता है। वह जगत् का उपादान और निमित्त कारण दोनों है, सृष्टि, स्थिति तथा लय तीनों का आधार है, वह स्वयंप्रकाश, सर्वव्यापक तथा अवाङ मनसगोचर है । हिरण्यगर्भ ब्रह्मा आदि देवता उसी पर आधारित रहते हैं। वह विमल, विशोक, अमृतस्वरूप एवं सत्यरूप है। वह अव्यक्त, सबका कारण, ब्रह्म, ज्योतिस्वरूप समस्त गुणों से रहित, विकारहीन, विशेषणरहित, अनिवर्चनीय, निष्क्रिय और केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में है।' सृष्टि के अन्त में सबको अपने में समाहित करके केवल शेष स्वरूप बचा १. श्रीमद्भागवत १२.५.११ २. तत्रैव १.१.१ तथा १२.१३.१४ ३. तत्रैव १०.३.२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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