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________________ ११८ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन हैं।' मार्कण्डेय की भक्ति मर्यादा भक्ति है और स्तुति निष्काम भावना से प्रेरित है । ऋषि भगवान् के गुणों का इस प्रकार वर्णन करते हैं-भगवन् ! मैं अल्पज्ञ जीव भला आपकी अनन्त महिमा का वर्णन कैसे करूं ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों में यहां तक कि हमलोगों में भी प्राण का संचार होता है और फिर उसी के कारण वाणी, मन तथा इंद्रियों में बोलने, सोचने, विचारने एवं करने-जानने की शक्ति आती है । इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतंत्र होने पर भी आप अपना भजन करने वाले भक्त के प्रेम बन्धन में बंधे हुए हैं। ऋषि भगवान् नर-नारायण की शरणागति होकर अनन्य भाव से तप कर रहे थे तभी नन्दीश्वरारूढ़ भगवान् शंकर एवं पार्वती आकाश मार्ग में विचरण करते हुए उधर आ पहुंचे। उनके साथ बहुत से गण भी थे। भगवान शंकर और पार्वती को अपने पास आया देख ऋषि प्रवर स्तुति करने लगे। उस स्तुति के क्रम में ऋषि भगवान् शंकर से अच्युता भक्ति की कामना करते हैं वरमेकंवृणेऽथापि पूर्णात् कामाभिवर्षणात् । भगवत्यच्युतां भक्ति तत्परेषु तथा त्वयि ॥' इस स्कन्ध में श्रीसूत जी दो बार भगवान् की स्तुति करते हैं। प्रथम बार ग्यारहवें अध्याय में सूत जी कहते हैं --सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण ! आप अर्जुन के सखा हैं । आपने यदुवंश शिरोमणि के रूप में अवतार ग्रहण करके पृथिवी के द्रोही भूपालों को भस्म कर दिया है । आपका पराक्रम सदा एक रस रहता है। ब्रज की गोपबालाएं एवं नारदादि प्रेमी भक्त आपके निर्मल यश का हमेशा गायन करते रहते हैं। गोविन्द ! आपके नाम, गुण और लीलादि का श्रवण करने से जीव का मंगल होता है। हम सब आपके सेवक हैं । कृपा करके हमारी रक्षा कीजिए। इसी प्रकार एक स्तुति में सूत जी भगवत्भक्ति की सर्वश्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हैं। भक्तिभावित मन से "हरयेनमः' इस नारायणीय मन्त्रोच्चारण मात्र से ही भक्त सारे पापों से मुक्त हो जाते हैं। जैसे सूर्य अन्धकार को एवं आंधी बादलों १. श्रीमद्भागवत १२।८।४०-४९ २. तत्रैव १२।८।४० ३. तत्रव १२।१०।२८-३४ ४. तत्रैव १२।१०।३४ ५. तत्रैव १२॥११॥४-२६ एवं १२।१२ ६. तत्रैव १२।११।२५ ७. तत्रैव १२।१२।४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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