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________________ १०८ श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन रहा था, तब पुनः ब्रह्मा जी भगवान् की स्तुति करने लगे। जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्ष स्वरूप परमानन्द के महान् समुद्र हैं-जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है-उन परमऐश्वर्य शाली पुरुष को हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं । हे प्रभो आप इस समय, जैसा करणीय हो वैसा यथाशीघ्र संपादित करें अहं गिरित्रश्च सुरादयो ये दक्षादयोऽग्नेरिव केतवस्ते । किंवा विदामेश पृथग्विभाता विधत्स्व शं नो द्विज देवमन्त्रम् ॥' तीसरी बार ब्रह्मा जी १८ वें अध्याय में स्तुति करते हैं, जब अदिति के गर्भ में भगवान् पधारते हैं । ब्रह्मा जी गर्भस्थ प्रभु भगवान् नारायण की स्तुति करते हैं । समग्र कीत्ति के आश्रय भगवन् ! आपकी जय हो । अनन्त शक्तियों के अधिष्ठान ! आपके चरणों में नमस्कार है । ब्रह्मण्यदेव त्रिगुणों के नियामक आपके चरणों में बार-बार प्रणाम है। आप समस्त चराचर के स्वामी एवं संपूर्ण जीवों के आश्रय हैं--- त्वं वै प्रजानां स्थिरजङ्गमानां प्रजापतीनामसि सम्भविष्णः । दिवौकसां देव दिवश्च्युतानां परायणं नौरिव मज्जतोऽप्सु ।' समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल से लगता था कि संपूर्ण संसार ही भस्मीभूत हो जायेगा। त्रैलोक्य में त्राहि-त्राहि मच गयी। कोई नहीं था जो उस भयंकर विष से जीव जगत् का त्राण कर सके। तब प्रजापतिगण कैलाशस्थ भगवान् त्रिलोकीनाथ महादेव की शरण में जाते हैं तथा अपने और प्रजा के उद्धार के लिए त्रिलोकीनाथ की स्तुति करते हैं। देवों के आराध्य महादेव ! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हम लोग आपकी शरण में आये हैं । त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से हमारी रक्षा कीजिए। प्रभो ! आपही ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों रूपों को धारण करते हैं गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान विभो । धत्से यदा स्वदग्भूमन् ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ।। जब भगवान् विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण कर असुरों को मोहित १. श्रीमद्भागवत ८१६१८-१५ २. तत्र व ८।६।१५ ३. तत्र व ८।१७।२५-२८ ४. तत्र व ८।१७।२८ ५. तत्र व ८७।२१-३५ ६. तत्र व ८७।२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003125
Book TitleShrimad Bhagawat ki Stutiyo ka Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarishankar Pandey
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1994
Total Pages300
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size12 MB
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