SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ : सम्बोधि योग का अन्तिम अंग समाधि है। उसका अर्थ है-आत्मनिष्ठा, बहिर्भाव से सर्वथा विलग होना । यहां परमात्मा और स्वात्मा का पूर्ण सादृश्य प्रतीत ही नहीं, अनुभूत होने लगता है । आत्मा की मौन ध्वनि मुखरित हो उठती है। 'जो परमात्मा है वह मैं हूं और जो मैं हूं वह परमात्मा है'—यह सत्य समाधि की नीची अवस्थाओं में भी उसे प्रतीत होने लगता है । वस्तुतः परम सत्य की दृष्टि में आत्मा और परमात्मा का स्वरूप अभिन्न है । भिन्नता व्यवहार में है। अभेद का उपासक भिन्नता के घेरे को लांघकर अभेद में चला जाता है। समाधि परमात्मस्थता का सर्वोच्च सोपान है । योगी वहां बहिःस्थता को सर्वथा भूल जाता है। वह क्या है ? किसका है ? कैसा है ? कहां है ? इन विकल्पों से अतीत हो जाता है ? उसे अपने शरीर का भी ज्ञान नहीं रहता। वह आत्म-चैतन्य और आत्मानंद में इतना खो जाता है कि बाहर उसे कुछ दिखाई नहीं देता। समाधि अभेददृष्टि से परमात्मा के साथ एकीकरण है और भेद-दृष्टि से आत्मा का स्वयं परमात्मा होना है। अभेदद्रष्टा आत्मा का परमात्मा के साथ विलीनीकरण में व्यग्र रहते हैं । आत्मा का स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रकारान्तर से वहां स्वतः प्रस्फुट हो जाता है। आत्मा के एकत्व और अनेकत्व की दो दृष्टियों का समन्वय ही हमें पूर्णता का अनुभव करा सकता है। समाधि कर्म-क्षय की सर्वोत्तम दशा है । मोह का आवरण यहां हट जाता है और आत्मा का स्वभाव प्रकट हो जाता है । शंकराचार्य का कथन है कि समाहित व्यक्ति को प्रबोध-ज्ञान की उपलब्धि होती है। जैन दर्शन की भाषा में यह केवल-ज्ञान दशा है। आत्मा इस अवस्था में सर्व पदार्थों की विविध दशाओं का साक्षात् ज्ञान कर लेती है । उसके लिए कोई अज्ञेय नहीं रहता। ओजश्चित्तं समादाय, ध्यानं यस्य प्रजायते । धर्मे स्थितः स्थिरचित्तो, निर्वाणमधिगच्छति ॥२६॥ २६. जो चित्त को निर्मल बनाकर ध्यान करता है, वही धर्म में अवस्थित होता है। स्थिरचित्त वाला पुरुष निर्वाण को प्राप्त होता है। ध्यान का अर्थ है-मन का आत्मा के साथ संयोजन । उसका पहला हेतु है, मन की पवित्रता। मन की तह में छिपी हुई जो वासनाएं हैं उन्हें एक-एक कर बाहर निकालना, मन को पवित्र करना है । मन में असंख्य संस्कार हैं। राग, द्वेष, मद, मोह, ईर्ष्या, लोभ, ममत्व आदि विकार मन को मलिन करते हैं। साधना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy