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५८ : सम्बाध
१५. अशुभ कर्म के बन्धन से दर्शन आवृत होता है, वीर्य (आत्मशक्ति) का हनन होता और प्रसरणशील पौद्ल क (भौतिक) सुखों की अनुकूलता नहीं रहती।
उदयेन च तीव्रण, ज्ञानावरणकर्मणः । उदयो जायते तीव्रो, दर्शनावरणस्य च ॥१६॥ तस्य तीवोदयेन स्यात, मिथ्यात्वमुदितं ततः। अशुभानां पुद्गलानां, संग्रहो जायते महान् ॥१७॥
१६-१७. ज्ञानावरण कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरण कर्म का तीव्र उदय होता है । दर्शनावरण के तीव्र उदय से मिथ्यात्व (दष्टि की विपरीतता) का उदय होता है और उससे बहुत सारे अशुभ कर्मों का संग्रह (बन्धन) होता है ।
मिथ्यात्वं मोह एवास्ति, तेनात्मा विकृतो भवेत् ।
सुचिरं बद्धयते सैष, स्वल्पं चारित्रमोहतः ॥१८॥ १८. मिथ्यात्व मोह का ही एक प्रकार है। उससे आत्मा विकृत होता है । मिथ्यात्व-मोह से आत्मा दीर्घकाल तक बद्ध होता है और चारित्र मोह से (उसकी अपेक्षा) अल्पकाल तक बद्ध होता
अज्ञानञ्चादर्शनञ्च, विकुर्वाते न वा जनम् । विकाराणां च सर्वेषां, बीजं मोहोस्ति केवलम् ॥१६॥
१९. अज्ञान और अदर्शन (ज्ञानावरण और दर्शनावरण) आत्मा को विकृत नहीं बनाते । जितने विकार हैं उन सबका बीज केवल मोह ही है।
ते च तस्योत्तेजनाय, हेतुभूते पराण्यपि । परिकरत्वं मोहस्य, कर्माणि दधते ततः ॥२०॥
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