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________________ ५४ : सम्बाधि ७. तप उसी प्रकार से करना चाहिए जिससे मन आत-ध्यान में न फंसे। क्योंकि सब धर्मों में विवेक प्रमुख धर्म है । विवेकशून्य व्यक्ति अपने को शुद्ध नहीं बना पाता। श्रमण परंपरा में तप की मुख्यता रही है। तप ब्रह्म है। तप स्व-धर्म में प्रवृत्ति है। तप इन्द्रिय और मन का वशीकरण है। इन्द्रिय-विषय और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का निग्रह कर स्वाध्याय और ध्यान के द्वारा आत्म-सम्पर्क साधने का नाम तप है । केवल आहारत्याग का ही नाम तप नहीं है । उसके साथ विषय और कषायों का परित्याग भी अपेक्षित है। जैन धर्म का झुकाव तप की ओर अधिक रहा है। भगवान् महवीर ने स्वयं विविध कठिन तपों का अवलम्बन लिया था। ते सत्य-साक्षात्कार के लिए व्यग्र थे। उनकी दैहिक, मानसिक और आत्मिक क्षमता भी अनन्य थी। ____ बहुत से विद्वानों की यह धारणा है कि महात्मा बुद्ध की तरह भगवान् महावीर मध्यममार्गी नहीं थे। वे शारीरिक उत्पीड़न पर बल देते थे। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है। भगवान् महावीर का विवेकवाद मध्यम मार्ग का ही एक रूप है। उन्होंने अविवेक को खतरनाक कहा है। उनका दर्शन था-प्रत्येक क्रिया विवेकयुक्त हो। अविवेकपूर्ण तप उनकी दृष्टि में सम्यक् नहीं था। जिस तप के द्वारा चित्त क्लिष्ट होता है, भावना की विशुद्धि नहीं रहती, वस्तुतः वह केवल काय-क्लेश है। वे कहते थे-अपने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल को पहले तोलो, अपनी क्षमता को क्रमशः बढ़ाओ, उसे वहीं तक सीमत मत रखो। जहां देखो कि तप से चित्त आर्त हो रहा है, वहीं रुक जाओ, चित्त को शान्त करो और फिर आगे बढ़ो। तप के प्रति यह उनका विवेकवाद था। (तप के विशेष विवरण के लिए देखें अध्याय १२) स्वकृतं नाम भोक्तव्यं, श्रद्धत्ते नेति यो जनः । श्रद्दधानोपि यो नैव, स्वात्मवीयं समुन्नयेत् ॥८॥ स कष्टाद् भयमाप्नोति, कष्टापाते विषीदति । आशङ्कां प्राप्य कष्टानां, स्वीकृतं मार्गमुज्झति ॥६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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