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परिशिष्ट - १ : ४४१
किन्तु करना समय मांगता है। एक ही अभ्यास साधने में वर्षों लग सकते हैं । महर्षि रमण से किसी ने पूछा- सत्य को जानने के लिए मैं क्या करूं ? रमण ने कहा- जो जाना हुआ है उसे भूल जाओ।' इसी तथ्य को पश्चिमीय लेखक रोवर गोंडल ने अपनी पुस्तक 'दी कन्टेम्पोरेरी साईन्सेज एण्ड दी लिबरेटिव एक्सपीरियन्स ऑफ योग' में लिखा है - मनुष्य के यह जानने से पहले कि वह क्या है, वास्तव में अब तक के जाने हुए को भूलना होगा ।
महर्षि उद्दालक अपने पुत्र श्वेतकेतु को उस जानने वाले को पढ़ा या नहीं यह प्रश्न सामने खड़ा कर आश्चर्य में डाल दिया । वह सब कुछ विद्याएं प्राप्त कर लौटा था । पिता ने कहा - अपने कुल में आज तक कोई ब्राह्मण बन्धु नहीं हुआ है । ब्रह्म को जानने वाले हुए हैं, जाओ, उसे पढ़कर आओ । श्वेतकेतु उन्हीं पैरों पुनः लौट चला ।
महावीर, बुद्ध आदि सबने यह कहा है कि 'एक को जान लेने पर सबको जान लिया जाता है । और एक को न जानकर कुछ भी नहीं जाना जाता |
जितना हम अधिक जानते हैं उतना ही वह भारी पड़ता है । कभी-कभी ज्ञानी किनारे खड़े रह जाते हैं और अज्ञानी छलांग लगा लेते हैं । मन पर जितना अधिक संस्कारों का लेप होता है, उसे धोने में उतना ही अधिक समय लगता है । ध्यान के लिए पूर्ण शुद्ध स्वच्छ चित्त की अपेक्षा होती है। यूनान के एक संगीत विशेषज्ञ के पास कोई संगीत सीखने जाता तो वह पूछता -- क्या तुमने पहले अभ्यास किया है ? वह कहता -- हां, तो उसकी फीस दुगुनी लेता और जो कहता, नहीं, उसकी आधी फीस लेता । एक दिन दो व्यक्ति एक ही साथ आ पहुंचे । उसने पूछा- क्या तुम्हें संगीत आता हैं ? एक ने कहा- हां, और एक ने कहा- नहीं । संगीतज्ञ ने कहा- तुम्हारी फीस आधी और उसने सीखा है इसलिए दुगुनी । उसने कहायह कैसा आपका न्याय ? आप भूल नहीं गये हैं ? उसने कहा- - 'नहीं, मैं जानता हूं। तुमने संगीत सीखा है । किन्तु तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि इसव्यक्ति के लिए मुझे कोई श्रम नहीं करना पड़ेगा। यह कोरा कागज है। तुम पर जो लिखा हुआ है, पहले उसे साफ करने में मुझे काम करना पड़ेगा इसलिए दुगुनी है । एक संगीत विशेषज्ञ की दृष्टि में जब संगीत सीखे हुए को प्रशिक्षित करने में कठिनाई होती है तब आत्म-बोध के लिए जो सीखा हुआ है वह कैसे अवरोधक नहीं बनेगा ? वहां तो बांसुरी की भांति जो खाली होगा, तभी स्वर प्रस्फुटित हो सकेगा ।
ध्यान की बात का उपदेश करना सरल है किन्तु उसे साधना कठिन है । परम ब्रह्म की बात भारतीय जन मानस के रक्त में मिश्रित है, किन्तु उसका आचरण कहां है? केवल जानकारी और उपदेश के करणीय कार्य में व्यवधान उत्पन्न हो गया। लोग यह मान बैठे कि आत्मा-परमात्मा हमें ज्ञात है । आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है -- अनेकों ऐसे महान विद्वान हैं जो अपनी वाक् छटा से उस अमेय शक्ति
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