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________________ परिशिष्ट - १ : ४०५ 1 यन्त्र - मानव की वहां नहीं चलती । मनोवैज्ञानिकों का कहना है-सात वर्ष में जो आप सीख लेते हैं, आपके पूरे जीवन में ७५ प्रतिशत वही पीछा करता है। क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, प्रेम आदि जीवन भर चलते हैं । क्यों कि वही सीखा हुआ था । प्रतिसंलीनता इन सबको समाप्त करने का एक साहसिक कदम है। अपने घर में प्रविष्ट होने के लिए सतर्क होना होगा। बाहर से सम्बन्ध विच्छेद करना होगा, चेतना को बाहर जाने वाले समस्त आलम्बनों से दूर हटना होगा । मनोविज्ञान की भाषा में वृत्तियों का मार्गान्तरीकरण, संस्करण, उच्चध्येय में प्रवाहित करना है । आंतरिक तप के प्रकार (१) प्रायश्चित्त ----- अन्तर्-तप का यह शुभारम्भ है । व्यक्ति की दृष्टि दूसरों से हटकर स्व-पर केन्द्रित हो जाती है । वह स्वयं को देखता है, "मैं कैसा हूं" भला हूं या बुरा, सही हूं या गलत। प्रायश्चित्त का अर्थ है - चित्त शोधन । जब तक व्यक्ति को स्वयं का बोध नहीं होता, तब तक चित्त शोधन कठिन है । अनेक व्यक्ति एक ही प्रकार की भूलों को बार-बार दोहराते हैं। एक भूल का प्रायश्चित्त करते हैं और संकल्प करते हैं कि अब फिर नहीं करूंगा, किन्तु कुछ ही समय बाद वे फिर उसी की पुनरावृत्ति कर लेते हैं । महावीर ने कहा - "बीअं तं न समायरे " दुबारा वैसा आचरण नहीं करे' । दुबारा भूल करने का अर्थ है - आप स्वयं में जागृत नहीं हैं । संकल्प को लेकर एक बार तोड़ देने पर मन दुर्बल हो जाता है । संकल्प के प्रति आस्था क्षीण हो जाती है । अनेक व्यक्ति संकल्प के टूट जाने पर पश्चात्ताप कर सन्तोष की सांस ले लेते हैं और बहुतों के मन से पश्चात्ताप का भाव भी चला जाता है । किन्तु उन्हें यह याद रखना चाहिए कि पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त में महान् अन्तर है | पश्चात्ताप क्षणिक शुद्धि है और प्रायश्चित सार्वदिक । पश्चात्ताप करने वाला मन::- शुद्धि नहीं करता । वह सोचता है - मैं गलत नहीं हूं, मेरे से गलती हो गई । जिसे स्वयं गलत होने का विश्वास है, वह अपनी भूल सुधार सकता है । भूल का वास्तविक प्रतिकार है— स्वयं को जैसा है वैसा स्वीकार करना । प्रायश्चित कर लेने पर भी अनेक व्यक्तियों के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसका मूल कारण यही है कि उन्होंने अपनी यथावत् स्थिति का स्वीकरण नहीं किया । केवल भय, प्रलोभन आदि अन्य कारणों से प्रायश्चित किया था । प्रायश्चित है - स्वयं का स्पष्ट दर्शन और फिर उस दोष- पथ का अस्वीकरण । जो अपने को देखता है वह भूलों का परिमार्जन कर निश्चित ध्येय को प्राप्त कर सकता है और जो अपने को सही मानता है, कार्य में भूल देखता है वह पश्चात्ताप कर स्वयं को पवित्र समझ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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