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उपसंहार
यह मेघ को दिया गया भगवान् महावीर का प्रतिबोध जन-जन के लिए प्रतिबोध है । मोह - विजय, अज्ञान - विजय और आत्मानुशासन की यह साधना है ।
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जिसका मोह विलय होता है वह संबुद्ध है । 'सम्बोधि' की उपासना कर अनेक आत्माएं मेघ बन गईं और अनेक बनेंगी । आत्मा का शुद्ध स्वरूप सच्चिदानन्द है । ह आत्मोपासना से प्रबुद्ध होता है । मोह और अज्ञान आत्मोत्तर हैं। इनके भंवर से ही निकल सकता है जो 'सम्बोधि' को आत्मसात् करता है । 'सम्बोधि' का संक्षेप रूप है - सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र । यही आत्मा है । जो आत्मा में अवस्थित है वह इस त्रिवेणी में स्थित है और जो त्रिवेणी की साधना में संलग्न हैं वह आत्मा में संलग्न है ।
आत्मा की अविकृत और विकृत दशा की यहां विस्तृत चर्चा है । विकृत से अविकृत बनाना 'सम्बोधि' का ध्येय है । जो धर्ममूढ़ता या आत्ममूढ़ता है वह मोह है । मोह का विलय मुक्ति है । मोह-विलय से दृष्टि शुद्धि, ज्ञान-शुद्धि और आचारशुद्धि होती है । प्रत्येक व्यक्ति इस त्रिशुद्धि का अधिकारी है किन्तु वह सर्वश्रेष्ठ अधिकारी है जिसकी मोह - विजय में पूर्ण आस्था है। क्षेत्र, काल, प्रान्त आदि की सीमाएं आस्थावान् के लिए व्यवधान नहीं बन सकतीं। यह सबकी बपौती है । 'सम्बोधि' आस्था को जगाती है और व्यक्ति को आस्थावान् बनाती है, आत्मा की स्व में अटूट आस्था को प्रबल कर वह कृतकृत्य हो जाती है ।
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