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________________ ३७० : सम्बोधि करने में जो व्यग्र नहीं और प्राप्त में परम संतुष्ट है, जो मिला है, उसमें प्रसन्न रह सकता है, वह संतुष्ट है । अमनोज्ञ-संप्रयोगे, नातं ध्यायंस्तथा त्यजन् । फलाशां भोगसंकल्पान्, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि ॥ ११ ॥ ११. अमनोज्ञ विषयों का संयोग होने पर और मनोज्ञ विषयों का वियोग होने पर तू आर्त्तध्यान मत कर ( अपने मानस को चिन्ता से पीड़ित मत बना), इस प्रकार तुझे मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा । रोगस्य प्रतिकाराय, नातं ध्यायंस्तथा त्यजन् । फलाशां भोगसंकल्पान्, मनसः स्वास्थ्य माप्स्यसि ॥ १२ ॥ १२. रोग के उत्पन्न होने पर चिकित्सा के लिए आर्त्तध्यान मत कर तथा भौतिक फल की आशा और भोग-विषयक संकल्पों को छोड़, इस प्रकार तुझे मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा । शोकं भयं घृणां द्वेषं विलापं क्रन्दनं तथा । त्यजन्नज्ञानजान् दोषान्, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि ॥ १३ ॥ १३. शोक, भय, घृणा, द्वेष, विलाप, क्रन्दन और अज्ञान से उत्पन्न होने वाले दोषों को तू छोड़, इस प्रकार तुझे मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त होगा । लब्धानां नाम भोगानां, रक्षणायाचरेज्जनः । हिंसां मृषा तथाsदत्तं तेन रौद्रः स जायते || १४ || १४. मनुष्य प्राप्त भोगों की रक्षा के लिए हिंसा, असत्य और चोरी का आचरण करता है और उससे वह रौद्र बनता है । तथाविधस्य जीवस्य, चित्तस्वास्थ्यं पलायते । संरक्षणमनादृत्य, मनसः स्वास्थ्यमाप्स्यसि ॥ १५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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