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________________ ३६६ : सम्बोधि गीता में भगवत् - समर्पण पर बहुत बल दिया गया है। वहां कहा है कि प्रत्येक प्रवृत्ति भगवान को समर्पित कर दो। 'सम्बोधि' में आत्म-समर्पण को मुख्यता दी है । जो साधक आत्मा को केन्द्र मानकर प्रवृत्त होता है, वह लक्ष्य तक पहुंच जाता है । जीवंश्च म्रियमाणश्च युञ्जानो विषयिव्रजम् । तल्लेश्यो लप्स्यसे नूनं मनः प्रसादमुत्तमम् ॥४॥ , 1 ४. तू जीवनकाल में मृत्युकाल में और इन्द्रियों का व्यापार करते समय आत्मा की लेश्या ( भावधारा ) से प्रवाहित होकर उत्तम मानसिक प्रसाद को प्राप्त होगा । आत्मस्थित आत्महित आत्मयोगी ततो भव । आत्मपराक्रमो नित्यं, ध्यानलीनः स्थिराशयः ॥ ५ ॥ ५. तू आत्मा में स्थिर बन, आत्मा के लिए हितकर बन, आत्म- योगी बन, आत्मा के लिए पराक्रम करने वाला बन, ध्यान में लीन और स्थिर आशय वाला बन । महावीर मानसिक आनन्द की सर्वोच्च प्रक्रिया प्रस्तुत कर रहे हैं । जब तक मन, चित्त और अध्यवसाय बाहर के आकर्षणों से मुक्त नहीं होते तब तक मानसिक प्रसाद का स्रोत प्रकट नहीं हो सकता । उसके समस्त प्रयास गज स्नानवत् होंगे । चित्त शुद्धि सर्वप्रथम है । जो साधक ध्यान साधना में प्रविष्ट होना चाहता है उसे यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि मनः शुद्धि के बिना ध्यान साधना का प्रयोजन सफल नहीं होता । वह इधर-उधर कितनी ही छलांग मारे, अन्ततोगत्वा अपने को वहीं खड़ा पाएगा। मन की प्रसन्नता का पहला पाठ है - मनः शुद्धि | और दूसरा पाठ है -- मन को बाहर से हटाकर चेतना के साथ संयुक्त करना । श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा... 'अब तू स्वयं कुछ नहीं है । जो कुछ करना है, वह मुझे समर्पित करके कर । तू प्रत्येक क्रिया में देख कि मैं नहीं हूं, बस, जो कुछ 1. हैं वह सब श्रीकृष्ण है ।' अष्टावक्र ने जनक से कहा- 'तू राज्य कर, पर अब यह राज्य तेरा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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