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________________ अध्याय १५ : ३४१ उच्चगोत्रो नीचगोत्रः सामग्र्या कथ्यते जनः । न होनो नातिरिक्तश्च, क्वचिदात्मा प्रजायते ॥१८॥ १८. प्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से आत्मा उच्चगोत्र वाला और अप्रशस्त सामग्री के प्राप्त होने से वह नोचगोत्र वाला कहलाता है । वस्तुतः कोई भी आत्मा किसी भी आत्मा से न उच्च है और न नीच । प्रज्ञामदं चैव तपोमदञ्च, निर्णामयेद् गोत्रमदञ्च धीरः। अन्यं जनं पश्यति बिम्बभूतं, न तस्य जातिः शरणं कुलं वा ॥१९॥ १६. धीर पुरुष वह होता है जो बुद्धि, तप और गोत्र के मद का उन्मूलन करे। जो दूसरे को प्रतिबिम्ब की भांति तुच्छ मानता है उसके लिए जाति या कुल शरणभूत नहीं होते। . __जो धार्मिक है, किन्तु जिनके अज्ञान का आवरण हटा नहीं है, वह धार्मिक होते हुए भी वृत्तियों से धार्मिक नहीं होते, उनकी दृष्टि अभी बाहर स्थित है, वह बाह्य वातावरण से प्रभावित है तथा बाह्य वस्तुओं के संयोग-वियोग से महान और क्षुद्र की कल्पनाएं करते हैं। धर्म का अभ्युदय होने पर बाह्य-वस्तुओं का वैशिष्ट्य समाप्त हो जाता है। एक साथ दो चीजें नहीं रह सकती। 'जीसस' ने कहा है-'कोई दो स्वामियों की सेवा एक साथ नहीं कर सकता। चाहे ईश्वर की आराधना करो या कुबेर की। ईश्वर चाहता है-त्याग और समर्पण, और कुबेर चाहता है—संग्रह तथा शोषण।" एक और भी उनका महत्त्वपूर्ण वचन है-"मैं तुम्हारा भगवान् बड़ा मानी हूं। मैं किसी दूसरे की सत्ता को नहीं सह सकता । चाहे तुम मुझे प्रसन्न कर लो या शैतान को।" धर्म की ज्योति प्रज्वलित होने के बाद भेदों की दीवार खड़ी नहीं रह सकती। धुंएं की दीवार के लिए तेज हवा का झोंका पर्याप्त है । मायाजन्य मान्यताएं-मैं बड़ा हूं, विद्वान हूं, पूज्य हूं, उच्च हूं-आदि ज्ञान के प्रकाश मे कब तक टिक सकती है ? व्यक्ति दूसरों को तुच्छ और घृणित तब तक ही समझता है जब तक उसे स्वयं का बोध नहीं है। मंसूर एक महान सूफी साधक हुआ है। उसने कहा-'अगर परमात्मा भी मुझे मिल जाय तो क्षमा नहीं मांगनी पड़ेगी, क्योंकि उसके सिवा मैंने किसी में कुछ देखा ही नहीं।' जो सबमें आत्मा को देखने लगता है वह कैसे दूसरों का तिरस्कार कर सकेगा? आत्म-बुद्धि जागृत हो जाए तब द्वैत का प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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