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________________ अकर्म-बोध यावद् देहो भवेत् पुंसां तावत्कर्मापि जायते । कुर्वन्नावश्यकं कर्म, धर्ममप्याचरेद् गृही ॥१॥ १. जब तक मनुष्य के शरीर होता है तब तक क्रिया होती है । आवश्यक क्रिया को करता हुआ मनुष्य धर्म का भी आचरण करे । " किं कर्म किमकर्म च कवयोप्यत्र मोहिताः ।" गीता में कहा है- "कर्म क्या है ? और अकर्म क्या है ? इस निर्णय में बड़े बड़े विद्वान भी मूढ़ हो जाते हैं ।” कर्म वस्तु का स्वभाव है । जो स्वभाव है वह किया नहीं जाता, प्रतिक्षण होता रहता है। इसलिए उसे अकर्म — अक्रिया कहा जाता है। अकर्म को कर्म के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता । ' अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा' - धीर व्यक्ति अकर्म के द्वारा कर्म (विजातीय) को नष्ट कर स्वभाव में प्रतिष्ठित होते हैं । कुछ कर्म निषिद्ध हैं। और कुछ विहित, किन्तु अकर्म की दृष्टि से दोनों ही अविहित हैं । अकर्म की स्थिति प्राप्त न हो तब विहित कर्म व्यक्ति करता है, किन्तु जो अकर्म के मर्म को जानता है वह कर्म करता हुआ भी अकर्म रहता है । सामान्यतया यह कठिन है । मनुष्य कर्म करता है अकर्म को भूलकर । कर्तृत्व का अहंकार और बाह्य प्रेरणाएं कर्म के लिए प्रेरित करती हैं । जिसे अकर्म का बोध नहीं है, वह कर्म के फल से भी सहज - तया मुक्त नहीं हो सकता । यश, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि में वह प्रसन्न हो जाता है और विपरीत में अप्रसन्न । अहंकार को रस प्रदर्शन में आता है, अपनी विशिष्टता बोध दूसरों को हो- वह बताना चाहता है । अकर्म का साधक कर्म में रस नहीं लेता । वह सिर्फ अपने को एक निमित्त समझेगा और कर्म का साक्षी, द्रष्टा रहेगा। अकर्म की साधना है - आप स्वयं कुछ करें नहीं, आप सिर्फ जो पीछे अकर्मक खड़ा है, उसे देखते रहें। ज़ेन साधक लिंची ने अपने शिष्यों से कहा है ..."अगर चित्र बनाने में तुम्हें जरा भी श्रम मालूम पड़े तो समझना अभी कलाकार नहीं हुए हो । जिस दिन श्रम का पता न लगे उसी दिन कलाकार बनोगे ।' जर्मन विचारक हैरीगेल धनुर्विद्या सीखने जापान आया। तीन साल श्रम किया | अचूक निशानेबाज हो गया। फिर भी गुरु ने कहा- अभी कुछ नहीं हुआ । अभी तू चलाता है, तीर चलता नहीं । थक गया । कहा- अब मैं आज जाता हूं । उसने घर जाने की सब तैयारी कर ली । विदा लेने आया। गुरु सिखा रहे थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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