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कर डाला। भगवान् महावीर की अनुज्ञा प्राप्त कर उसने भिक्षु की बारह प्रतिमाओं की एक-एक कर आराधना की। 'गुणरत्न संवत्सर' नामक तपोयोग से आत्मा को भावित करता हुआ वह एक बार राजगृह नगर में आया। वहां गुणशील नामक उद्यान में ठहरा । रात्रि में वह धर्मजागरिका कर रहा था। उसके मन में एक विकल्प उठा--'मेरा तपोयोग सानन्द चल रहा है। मेरा सारा शरीर तपस्या से कृश हो चुका है। मेरे में अभी भी शक्ति अवशिष्ट है। जब तक उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम विद्यमान है तब तक मुझे संयम में विशेष पराक्रम करना है। प्रातःकाल होते ही मैं भगवान् महावीर से अनुज्ञा प्राप्त कर, गणधर गौतम आदि श्रमणों तथा श्रमणियों से क्षमायाचना कर विपुल पर्वत पर धीरे-धीरे आरोहण कर, वहाँ पृथ्वी शिलापट्ट पर प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लूंगा।'
प्रात:काल हुआ। वह भगवान महावीर के पास आया । वंदना-नमस्कार कर, हाथ जोड़ एक ओर मौन रूप से उपासना में बैठ गया। भगवान् ने उसके मन की बात अभिव्यक्त करते हुए कहा-'मेघ ! जो तुमने सोचा है, वैसा करना ही श्रेयस्कर है। विलंब मत करो।' मेघ ने अनशन स्वीकार कर लिया। अनेक निग्रंथ अग्लानभाव से उसकी परिचर्या करने लगे।
मुनि मेघ ग्यारह अंग पढ़ चुका था। उसके संयम पर्याय का बारहवां वर्ष पूरा हो रहा था। एक मास का अनशन पूरा कर मुनि मेघकुमार मृत्यु को प्राप्त हो गया। परिचर्या में नियुक्त श्रमण उसके भंडोपकरण लेकर भगवान के पास आये और बोले-'भंते ! ये भंडोपकरण अनगार मेघ के हैं। भंते ! मेघ यहां से मरकर कहां गया है ? वह कहां उत्पन्न हुआ है ?' महावीर ने कहा- 'वह यहां से मरकर 'विजय' नामक महाविमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है । उसका आयुष्य तेतीस सागर का है। आयुष्य पूरा होने पर वह महाविदेह में उत्पन्न होगा और वहां समस्त कर्मों का क्षय कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जायेगा।'
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