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________________ अध्याय १४ : ३१ε दुष्प्रवृत्तः क्वचित् साधुर्नाव्रती स्यान्मुनिः क्वचित् । सत्प्रवृत्तोऽपि नो साधुरव्रती जायते क्वचित् ॥ ३०॥ ३०. जो दुष्प्रवृत्त है वह क्वचित् साधु हो सकता है परन्तु अती कहीं और कभी साधु नहीं हो सकता । अव्रती सत्प्रवृत्ति करे, फिर भी वह साधु नहीं होता । तात्पर्य यह है कि व्रती के द्वारा भी कभी दुष्प्रवृत्ति हो सकती है किन्तु उससे वह अव्रती नहीं होता और अव्रती सत्प्रवृत्ति करने मात्र से साधु नहीं होता । साधु वह होता है जिसके अव्रत न हो - असंयम न हो । अनासक्ति और आसक्ति के परिणामों से कर्मफल में भेद होता है । लेकिन प्रश्न यह होता है कि अनासक्त व्यक्ति के बन्धन का हेतु क्या है, जबकि वह निःस्वार्थ वृत्ति से कार्य करता है । बन्धनका मुख्य हेतु है अविरति । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्यं और परिग्रह की सूक्ष्म या स्थूल जो प्रवृत्ति है या अत्यागवृत्ति है उसका नाम अविरति है । व्यक्ति जब तक अविरति से मुक्त नहीं होता तब तक कर्म का आगमन निरुद्ध नहीं होता । अविरति आत्मा की बहिर्दशा है और विरति अन्तर्दशा । विरत व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में हिंसा आदि न करता है, न कराता है और न करते हुए व्यक्तियों का अनुमोदन ही करता है। हिंसा आदि कार्यों में व्यक्ति अनवरत प्रवृत्त नहीं रहता, किन्तु अविरति का प्रवाह सतत चलता रहता है । तन्द्रा और मूच्छित स्थिति में भी वह बन्द नहीं होता । प्रवृत्ति को ही यदि हिंसा आदि का कारण मानें तो वह सबके सदा नहीं होती । व्यक्ति उसके अभाव में अहिंसक बन सकता है। यह स्थूल सत्य है, वास्तविक नहीं। सूक्ष्म सत्य वही है जहां अविरति का त्याग है | अविरति के त्याग में सूक्ष्म और स्थूल दोनों ही प्रवृत्तियां विशुद्ध हो जाती हैं । प्रश्न यह होता है कि इस प्रकार की साधना में प्रवृत्त व्यक्ति के मन में क्या दुष्प्रवृत्ति कभी नहीं आती ? यदि आती है तो फिर वह अहिंसक कैसे हो सकता है ? अहिंसक का साध्य विशुद्ध आत्मा है । वह लक्ष्य से जब भटक जाता है, तब दुष्प्रवृत्ति का शिकार हो जाता है । लेकिन वह उसका साध्य नहीं है । अतः वह पुनः अपने मार्ग में लौट आता है । उस प्रवृत्ति के प्रति उसका मन ग्लानि से भर जाता है, वह शुद्ध हो जाता है। इससे उसके साध्य में कोई अन्तर नहीं आता । किन्तु जो अविरत है वह कभी मुनि नहीं बन सकता । अविरत की सत् प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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