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________________ अध्याय १३ : २८५ जैन-दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा ही परमात्मा है। विश्वजनमत का बहुत बड़ा भाग आत्मा को परमात्मा नहीं मानता। वह कहता है कि परमात्मा एक है। अन्य आत्माएं उसी परमात्मा की अंश हैं। वे शुद्ध होने पर परमात्मा में ही विलीन हो जाती हैं । स्वतन्त्र रूप से उनका कोई अस्तित्व नहीं है। __ जैन-दर्शन इससे सहमत नहीं है । वह प्रत्येक आत्मा को पूर्ण स्वतन्त्र मानता है। आत्मा एक अखण्ड द्रव्य है। उसके अंश कभी पृथक् नहीं हो सकते। अंशों को यदि पृथक् रूप से माने तो जीवात्मा-आत्मा के जो सुख-दुःख के भोग होते हैं वे सब परमात्मा के होते हैं, इससे परमात्मा की शुद्धता नहीं रह सकती। क्लेश, कर्म-फल और चेष्टाओं से जो अपरामष्ट पुरुष विशेष है वह परमात्मा है। परमात्मा की इस परिभाषा से अन्य आत्माओं का संभव नहीं हो सकता क्योंकि हम अन्य आत्माओं को उसी परमेश्वर का अंश मानते हैं जबकि परमात्मा वीतराग है और अन्य आत्माएं सराग । आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता मान लेने पर परमात्मा की अनेकता में भी कोई बाधा नहीं आती। आत्मा की पृथक् सत्ता और अनन्तता गीता से स्पष्ट है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—'ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था, तू नहीं था, ये सब राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा जब कि हम सब इसके बाद नहीं रहेंगे।' __ आत्मा को एक मान लेने पर विविध व्यक्तियों में विविधता का हेतु क्या होगा, कर्म-फल की विभेदता क्यों है और मरने और जीने वाली आत्माएं क्या एक या अनेक हैं-कितने ही प्रश्न हमारे सामने हैं । आत्मा को अनेक मान लेने पर ये विरोध नहीं रहते। आत्मा और परमात्मा एक है—यह एक ही शर्त पर माना जा सकता है, वह है स्वरूप।' एक आत्मा का जैसा सत्चित् आनन्दस्वरूप है, वही सबका है । जब आत्मा इस स्वरूप को प्राप्त कर लेती है तब वह परम आत्मा बन जाती है। स्वरूपतः सब आत्माएं एक हैं, लेकिन सत्ता की दृष्टि से एक नहीं हैं । एक आत्मा का स्वरूप आज प्रकट हुआ है और एक का हजार वर्ष बाद । स्वरूप-प्राप्ति की दृष्टि से दोनों एक कैसे हो सकती हैं ? ___कई दार्शनिक एक ही परमात्मा को मानते हैं। उनका कहना है, अन्य कोई परमात्मा नहीं बन सकता। 'नर से नारायण' और 'आत्मा ही परमात्मा है'इन लोकोक्तियों का क्या अभिप्राय है, यह भी हमें समझना होगा। जैन-दर्शन की मान्यता के आधार पर प्रत्येक आत्मा में परमात्मत्व का बीज विद्यमान है। जब इसे अनुकूल योग मिलता है वह परमात्मा बन जाती है। परमात्मा वही आत्मा होती है, जो राग-द्वेष और शरीर से मुक्त होती है। आत्मा और परमात्मा में केवल आवरण और अनावरण का ही अन्तर है। आवृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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