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अध्याय १२ : २६५
सम्पूर्ण विश्व इन दोनों की सृष्टि है । ये दोनों अनादि हैं । आत्मा विजातीय तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं होता, तब तक उसे संसार में भ्रमण करना होता है । भवभावना में साधक यह देखता है, अनुभव करता है कि में इस संसार में कब से भ्रमण कर रहा हूं । ऐसी कोई योनि नहीं है जहां मैं जन्मा नहीं हूं । प्रत्येक गति - में अनेकशः उत्पन्न हो चुका हूं। क्या मैं इस प्रकार भ्रमण करता रहूंगा ? वह देखता है योनियों में विविध कष्टों को और इस भव-भ्रमण के बन्धन को चाहता है तोड़ना । राग और द्वेष भव-भ्रमण के मुख्य हेतु हैं । जब तक ये विद्यमान रहते हैं तब तक आत्मा का पूर्ण स्वातंत्र्य प्रगट नहीं होता । विविध योनियों में विविध -रूपों में भ्रमण का चिन्तन करना भव-भावना है ।
(४) एकत्व भावना -
'एगो में सासओ अप्पा, णाणदंसण लक्खणो । सेसो मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ।'
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- ज्ञान-दर्शन स्वरूप शाश्वत आत्मा है, यही में हूं । इसके सिवा शेष सांयोगिक पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, वे 'मैं' नहीं हूं।" दूसरों के साथ अपने को इतना संयुक्त न करे कि जिससे स्वयं के होने का पता ही न चले। इस एकत्व भावना में अपने को समस्त संयोगों से पृथक् देखता है। प्लोटिस ने कहा है- FLIGHT OF THE ALONE TO THE ALONE. 'अकेले की अकेले के लिए उड़ान है' । नमि राजर्षि ने कहा- 'संयोग ही दुःख है । दो में शब्द होते हैं, अकेले में नहीं । रानियां चन्दन घिस रही थीं । चूड़ियों के शब्द कानों में चुभ रहे थे । नमि राजर्षि ने कहा - बन्द करो । रानियां हाथ में एक-२ चूड़ी रख चन्दन घिसने लगीं । शब्द बन्द हो गया । नमि राजर्षि ने पूछा- क्या चन्दन घिसना बन्द कर दिया ? उत्तर 'मिला- नहीं, घिसा जा रहा है।' तो शब्द क्यों नहीं हो रहा है, नमि ने पूछा । तब कहा - ' एक - एक चूड़ी है । एक चूड़ी कभी शब्द नहीं करती।' तत्क्षण यह सुनते ही वे प्रतिबुद्ध हो गये और साधना-पथ पर चल पड़े। साधक सर्वत्र स्वयं के अकेले का अनुभव करे। यह सिर्फ कल्पना के स्तर पर ही नहीं, वस्तुतः जो है— अस्तित्व वह एक है, अकेला है । जिस दिन चैतन्य की अनुभूति में निमज्जन होने लगता है, शान्ति उस दिन स्वयं ही उसके द्वार खटखटाने लगती है ।
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(५) अभ्यत्व भावना - एकत्व और अन्यत्व -- दोनों परस्पर संबन्धित हैं । अन्य - दूसरों से स्वयं को पृथक् देखना एकत्व है और अपने से दूसरों को भिन्न 'देखना अन्यत्व है । 'पर' 'पर' है और 'स्व' 'स्व' है । 'पर' को अपना न माने । 'पर' के और अपने बीच जो दूरी है, वह सदा बनी रहती है। किसी ने एक होटल के मालिक से पूछा - 'वह व्यक्ति ठीक आप जैसे लगता है, क्या आपका भाई है ? एक ही हैं आप ?' उसने कहा - 'नहीं', बहुत दूरी है। हम अपने पिताजी के बारह लड़के हैं। पहला मैं हूं और वह बारहवां है।
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