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________________ अध्याय ११ : २३५ जागते हुए कभी पाप में प्रवृत्त नहीं होता, वह महान् है और वही आत्मनिष्ठ हो सकता है। यदा यदा हि लोकेस्मिन्, ग्लानिर्धर्मस्य जायते। तदा तदा मनुष्याणां, ग्लानि यात्यात्मनो बलम् ॥४२॥ ४२. इस संसार में जब-जब धर्म के प्रति ग्लानि होती है, तब-तब मनुष्यों का आत्मबल भी क्षीण हो जाता है। आत्मबल के समक्ष भौतिकबल नगण्य है। भौतिक शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति कितना ही पराक्रमी हो, किन्तु दूसरों से सदा भयभीत रहता है। जिस हिटलर के नाम से विश्व कांपता था वह हिटलर अपने भीतर स्वयं कितना प्रकंपित था, यह आज स्पष्ट हो चुका है। हिटलर एक कमरे में सो नहीं सकता था। शादी भी मरने के कुछ समय पूर्व की थी। पत्नी पर विश्वास नहीं। निजी डाक्टरों ने कहा कि वह अनेक बीमारियों से ग्रस्त था। बहुत बार बाहर जाने के लिए भी अपनी शक्ल का दूसरा नकली व्यक्ति भेजता था। प्रतिक्षण भयभीत था। क्या इसे वीरत्व कहा जा सकता है ? अस्तित्व की दिशा में जो व्यक्ति कदम उठाता है उसका आत्मबल क्रमशः वर्धमान होता रहता है। उसके पास चाहे शरीर-बल इतना न भी हो किन्तु आत्मबल परिपूर्ण होता है । वह कांपता नहीं रहता। वह मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। भय जीवनैषणा के कारण है। जब जीवनैषणा ही नहीं रहती तब भय किसका? आत्मबल की क्षीणता का कारण है-धर्म-अस्तित्व के सम्यग् अवबोध का अभाव । धर्म ने कभी मनुष्य को भीरु नहीं बनाया। सही धार्मिक व्यक्ति भीरु हो भी नही सकता। जहां जाने से लोग डरते थे वहां महावीर चंडकौशिक महाविषधर के निवासस्थल पर जाकर ध्यानस्थ खड़े हो जाते हैं। बुद्ध 'अंगुलिमाल' के सामने आ उपस्थित होते हैं। महावीर का श्रावक सुदर्शन 'अर्जुनमाली" को बिना किसी शस्त्रास्त्र के परास्त कर उसे महावीर के चरणों में उपस्थित कर देता है। धर्म से जिस ‘आत्मशक्ति' का जागरण होता है वैसा जागरण और किसी से नहीं होता। धर्म के प्रति उदासीन होने का अर्थ है-स्वयं के प्रति उदा-- सीन होना । धर्म की क्षीणता में आत्मशक्ति की क्षीणता अनिवार्य है। मेघः प्राह असतो वारयन्नित्यं, ध्रुवे सत्ये प्रवर्तनम् । धर्मो जाति तेजस्वी, तस्य ग्लानिः कुतो भवेत् ॥४३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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