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________________ अध्याय ११ : २२५ स्वाख्यातमेतदेवास्ति, सत्यमेतत् सनातनम् । सदा सत्येन सम्पन्नो, मैत्री भूतेषु कल्पयेत् ॥२६॥ २६. यही सुभाषित है, यही सनातन सत्य है कि व्यक्ति सदा सत्य से सम्पन्न बने और सब जीवों के प्रति मैत्री का व्यवहार करे। वैरी करोति वैराणि, ततो वैरेण रज्यति । पापोपगानि तानीह, दुःखस्पर्शानि चान्तशः ॥२७॥ २७. जो व्यक्ति वैरी है वह वैर करता है और वैर करते-करते उसमें रक्त हो जाता है । वैर पापार्जन का हेतु है और अन्तत: उसका परिणाम दुःख-प्राप्ति होता है । मेरी सबके साथ मैत्री है किसी के साथ विरोध नहीं है, इस मानसिक शुद्धि के बिना मैत्री नहीं होती। जहां कहीं हमारा प्रेम अथवा द्वेष है वहां मैत्री नहीं है। हम शत्रु से सशंकित रहते हैं और मित्रों की चिन्ता करते हैं। जो विश्व को मित्र मानता है वह अभय होता है। समाधि अभय व्यक्ति को प्राप्त होती है। प्रतिशोध की भावना में वैर झलकता है । वैर का परिणाम दुःखमूलक है। स हि चक्षुर्मनुष्याणां, काङ्क्षामन्तं नयेत यः। लुठति चक्रमन्तेन, वहत्यन्तेन च क्षुरः ॥२८॥ २८. जो कांक्षा (सन्देह) का अन्त करता है, वह मनुष्य का नेत्र है। रथ का पहिया अन्त (धुरी के किनारे) से चलता है और उस्तरा भी अन्त से चलता है । धीरा अन्तेन गच्छन्ति, नयन्त्यन्तं ततो भवम् । अन्तं कुर्वन्ति दुःखानां, सम्बोधिरतिदुर्लभा ॥२६॥ २६. धीर पुरुष अन्त से चलते हैं-हर वस्तु की गहराई में पहुंचते हैं । इसलिए वे भव का अन्त पा लेते हैं, और दुःखों का अन्त करते हैं। इस प्रकार की सम्बोधि प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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