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________________ २०४ : सम्बोधि ३६. कई पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और अन्त तक उसमें स्थिर रहते हैं। कई पहले साधना के लिए उद्यत होते हैं और बाद में गिर जाते हैं। कई साधना के लिए न उद्यत होते हैं और न गिरते हैं। इसका चतुर्थ भंग शून्य होता है-बनता ही - नहीं। व्यक्ति तीन प्रकार के होते हैं : १. पूर्वोत्थित और पश्चाद् स्थित । २. पूर्वोत्थित और पश्चाद् निपाती। ३. न पूर्वोत्थित और न पश्चाद् निपाती। आत्मा पर पूर्व-संस्कारों का गहरा प्रभाव होता है। अच्छे संस्कार व्यक्ति को सहजतया अच्छाई की ओर खींच लेते हैं और बुरे संस्कार बुराई की ओर । शुभ संस्कारी व्यक्ति ही साधना पर आरूढ़ हो सकते हैं, अशुभ संस्कारी नहीं। साधना के लिए पवित्रता ही पहली शर्त है। अशुभ संस्कारी व्यक्ति में वह नहीं होती। शुभ संस्कारी साधना-पथ पर आने के बाद अपने संस्कारों को और अधिक पवित्र और सुदृढ़ बनाते चलते हैं। अतः वे अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं होते। जो साधना-क्षेत्र में प्रविष्ट होकर संस्कारों का निर्माण नहीं करते वे अशुभ संस्कारों के झंझावात में अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख पाते। वे साधना से परे हट जाते हैं। जिनके संस्कारों में अशुभता की प्रबलता होती है, वे न साधना में आते हैं और न गिरते हैं। गिरते वे हैं जो चलते हैं। नहीं चलने वाले क्या गिरेंगे! यत् सम्यक् तत् भवेन्मौनं, यन्मौनं सम्यगस्ति तत् । मुनिर्मोनं समादाय, धुनीयाच्च शरीरकम् ॥४०॥ ४०. जो सम्यक् है वह मौन (श्रामण्य) है और जो मौन है वह सम्यक् है । मुनि मौन को स्वीकार कर शरीर-मुक्त बने । मुनि का कर्म मौन है । वह आत्मशुद्धिमूलक होने से सम्यक् है । एक कारण है और दूसरा कार्य । कार्य और कारण के अभेद दर्शन से सम्यक् को मौन और मौन को सम्यक् कहा है। मुनि का कर्म इसलिए सम्यक् है कि उसमें राग, द्वेष, कषाय, -मोह आदि का उपशम या क्षय होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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