________________
भध्याय ८ : १५७०
प्रवृत्ति का दूसरा प्रकार है-अविरति । व्यक्ति का दर्शन सम्यग् नहीं होता है तब पदार्थों के प्रति आकर्षण न होने की बात कैसे फलित हो सकती है ? ऊपरऊपर विरति पल सकती है किंतु पदार्थों का मोह नहीं छूटता । एक पदार्थ या व्यक्ति से मोह छूटता है तो दूसरे के प्रति अधिक मोह जागृत हो जाता है। भविरति आन्तरिक लालसा है । सत्य की शोध में बाहर से विकर्षण भी अपेक्षित है। किन्तु इसके साथ-साथ आन्तरिक आकर्षण का क्रम चलना नितान्त स्पृहणीय है। अन्यथा वह विराग जीवन्त नहीं हो सकता।
प्रवृत्ति का तीसरा प्रकार है-प्रमाद । यह व्यक्ति को जागत नहीं होने देता स्व-विस्मृति में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है । इसके बहुविध आवरण हैं । शराब, नींद, विकथा (जो बातें स्वयं से दूर ले जाती हैं), इन्द्रिय-विषय और कषाय-प्रमाद को पुष्ट करने में ये पांच महत्वपूर्ण सहयोगी हैं। इन अवस्थाओं में जीने का अर्थ है-स्वयं के प्रति अनुत्साह । सामान्यतया मनुष्य इन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है। ये वृत्तियां आदमी को भीतर झांकने नहीं देती।
प्रवृत्ति का चौथा प्रकार है-कषाय । कषाय प्रमाद के अन्तर्गत होने पर भी प्रवृत्ति में उसका स्वतन्त्र उल्लेख है। वह इसलिए कि आत्मा की क्रमिक अवस्थाओं में प्रमाद के छूट जाने पर भी वह आगे तक विद्यमान रहता है। उसके सूक्ष्मांशों के प्रति सचेत हुए बिना साधक को पुनः नीचे लौटना पड़ता है। क्रोध, मान, माया और लोभ- ये कषाय के मुख्य अंग हैं । आत्मा के शुद्ध स्वरूप की उपलब्धि में ये बाधक हैं।
प्रवृत्ति का पांचवां प्रकार है-योग। योग का अर्थ है-मन, वाणी और काया की चंचलता। मनुष्य का बाहरी रूप जो दिखाई देता है, वह सिर्फ बाहरी नहीं है, भीतर का प्रतिबिम्ब है। भीतर घटना घटती है और बाहर उसका विस्तार हो जाता है। मिथ्यात्व आदि आन्तरिक और सूक्ष्म वृत्तियां हैं। सागर में बुद्बुदे की भांति ये भीतरी मन में उठती हैं और बाहर आकर फूट जाती हैं। मन सूक्ष्म योग है, वाणी स्थूल और काया स्थूलतम । वाणी और शरीर कार्य हैं, मन कारण है । और भी गहराई से देखा जाए तो मन भी कार्य है क्योंकि वह स्वतन्त्र नहीं है। उसमें भी जो स्पंदन होता है, उसका स्रोत अन्यत्र है। समस्त प्रवृत्तियों का मूल कारण है—कार्मण शरीर-सूक्ष्म शरीर । मिथ्यात्व आदि प्रवृत्तियों का स्रोत है वह । कर्म से प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से क्रिया, क्रिया से फिर कर्म-योग्य पुद्गलों का ग्रहण । इस दुश्चक्र से मुक्त होने के लिए निवृत्ति का दर्शन है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org