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________________ १४२ : सम्बोधि गृहस्थ-उ -उपासक और मुनि दोनों का लक्ष्य एक है इसलिए सतत स्मृति -दोनों के लिए अपेक्षित है । अन्तर केवल कर्त्तव्य का होता है। देखना सिर्फ इतना ही है कि कार्य - व्यस्तता में स्मृति का तार कितना अविच्छिन्त रहता है । जिस गृह-साधक की स्मृति इतनी प्रबल हो जाती है वह एक क्षण भी स्वयं से दूर नहीं होता। उसके कार्य एक स्तर पर चलते हैं और वह जीता किसी और स्तर पर है । जीवन जीने की यह परम कला है । इससे ही उसकी समस्त प्रवृत्तियां सत्य की ओर उन्मुक्त हो जाती हैं । उसका समग्र व्यवहार इसकी परिक्रमा किए चलता है । विधि-निषेध का केन्द्र धर्म होता है । वह उसी के निर्णय को महत्व देता है । उसके आक्रान्त होने या हिंसक होने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता । - गृहस्थ दोनों से विपरीत है। वह जीवन जीता है। किन्तु जीवन का वास्त'विक ध्येय उसके सामने नहीं रहता । लक्ष्य के अधार पर ही जीवन की वृत्ति का -पहिया घूमता है । यदि ध्येय स्पष्ट और शुद्ध होता है तो क्रिया को भी उसका अनुगमन करना होता है । शुद्ध-साध्य के लिए साधन-शुद्धिकी बात गौण नहीं हो "सकती । जीवन का लक्ष्य केवल बहिर्मुखी (भौतिक) होता है, तब वृत्तियां अन्तर्मुखी कैसे हो सकेंगी गृहस्थ बहिर्मुखी होता है, इसलिए वह आक्रमण करने से भी 'चूकता नहीं। दुनियां के युद्धों के इतिहास के पीछे यही मनोवृत्ति काम कर रही है। पांच हजार वर्षों के इतिहास में पन्द्रह सौ बड़े युद्ध क्या बहिर्मुखता के द्योतक नहीं हैं ? यह तो विश्व की स्थिति का दर्शन है । जीवन निर्वाह में निरन्तर चलने वाले कलह-झगड़े, वे क्या हैं ? क्या उनके पीछे कोई वास्तविक उद्देश्य होता है ! व्यर्थ के झंझटों में मनुष्य व्यर्थ उलझता है और दूसरों को भी उलझाता है । यह मानवीय स्वभाव की दुर्बलता है । सत्य, अहिंसा, नैतिकता आदि उसके लिए सिर्फ शब्द होते हैं । संकल्पजा हिंसा से भी यदि मनुष्य निरत हो सके तो सुख की - सृष्टि संभव हो सकती है । अहिंसेव विहितोस्ति, धर्मः संयमिनो ध्रुवम् । निषेधः सर्वहिंसाया, द्विविधा वृत्तिरस्य यत् ॥२०॥ २०. संयमी पुरुष के लिए अहिंसा धर्म ही विहित है और सब प्रकार की हिंसा वर्जित है । संयमी का वर्तन दो प्रकार से होता हैसमितिपूर्वक और गुप्तिपूर्वक । चारित्र की प्रवृत्ति के लिए समितियां हैं और शुभ-अशुभ प्रवृत्ति का निरोध करने के लिए गुप्तियां । -समिति विधेयात्मक अहिंसा है और गुप्ति निषेधात्मक अहिंसा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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