SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४० : सम्बोधि नहीं उठे हैं उन सबको इस धर्म का उपदेश दो।' फलस्वरूप सहस्रों व्यक्ति पूर्ण अहिंसक (मुनि) बने। __ गृहस्थ-जीवन में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है, इस प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर ने हिंसा के तीन भेद किए, जिनके स्वरूप का विवेचन अगले श्लोकों में स्पष्ट किया गया है। भगवान् ने तीन प्रकार की हिंसा का निरूपण करते हुए गृहस्थ को निरर्थक हिंसा और संकल्पजा हिंसा से दूर रहने की बात कही है, जो अत्यन्त व्यवहार्य और सुखी जीवन की प्रेरणा देने वाली है। कृषी रक्षा च वणिज्य, शिल्पं यद् यच्च वृत्तये । क्रियते सारम्भजा हिंसा, दुर्वार्या गृहमेधिना ॥१५॥ १५. कृषि, रक्षा, व्यापार, शिल्प और आजीविका के लिए जो 'हिंसा की जाती है उसे 'आरम्भजा-हिंसा' कहा जाता है । इस हिंसा से गृहस्थ बच नहीं पाता। गृहस्थ अपने और अपने आश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण के लिए आजीविका करता है। वह कर्म से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता। जहां कर्म है वहां हिंसा है । कर्म ही आरम्भ है । कर्म की दो धाराएं हैं-गा और अगह्य। मांस, शराब, अंडे आदि का व्यापार गर्दा-निंद्य माना गया है। एक आत्मद्रष्टा या धार्मिक वह नहीं कर सकता। खेती, रक्षा, शिल्प आदि वृत्तियां गद्य नहीं हैं । गृहस्थ इनका अवलम्बन लेता है। आक्रामतां प्रतिरोधः, प्रत्याक्रमणपूर्वकम् । क्रियते शक्तियोगेन, हिंसा स्यात् सा विरोधजा ॥१६॥ १६. आक्रमणकारियों का प्रत्याक्रमण के द्वारा बलपूर्वक प्रतिरोध किया जाता है, वह विरोधजा-हिंसा' है। यहां आक्रान्ता बनने का निषेध है। गृहस्थ अपने बचाव के लिए प्रत्याक्रमण करता है। सभी राष्ट्र स्व-सीमा में रहना सीख जाएं, कोई किसी पर आक्रमण करने की चाल न चले तो शान्ति सहज ही फलित हो जाती है। आक्रमण की प्रवृत्ति युद्ध को जन्म देती है, शान्ति को भंग करती है और अन्तर्राष्ट्रीय मर्यादा का अतिक्रमण करती है। भगवान् महावीर ने ऐसा नहीं कहा कि देश की सीमा पर शत्रुओं का आक्रमण हो और तुम मौन बैठे रहो, लेकिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy