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१३८ : सम्बोधि
से वे शव बनकर रह गए, चैतन्य चला गया ।
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संयम का अर्थ है— निष्क्रियता, क्रिया का सर्वथा निरोध हो जाना । इसका फलितार्थ होता है --- शुद्धात्मा की उपलब्धि, किंतु यह भी स्पष्ट है कि पूर्ण अयित्व प्रथम चरण में ही उपलब्ध नहीं होता । उसके लिए क्रमशः आरोहण की अपेक्षा होती है । यद्यपि संयम का पूर्ण ध्येय वही है, किंतु प्राथमिक अभ्यास की दृष्टि से व्यक्ति को अपनी अशुभ प्रवृत्तियों का संवरण करना होगा। महाव्रत, अणुव्रत आदि साधना अशुभ- विरति की साधना है । जैसे-जैसे साधक आगे बढ़ता है सामायिक,समता, संवर आता है और इंद्रिय और मन के निरोध करने में कुशल होता चला जाता है । एक क्षण आता है कि वह बाहर से सर्वथा शून्य - बेहोश तथा अन्तर् में पूर्ण सचेतन होता है । यही क्षण शुद्ध स्वात्मोपलब्धि का है। जहां बाह्य आकर्षणों IT आधिपत्य स्वतः ध्वंस हो जाता है, वही वास्तविक संयम है ।
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हिसानूतं ध्रुवं
तथास्तेयाऽब्रह्मचयं परिग्रहाः । प्रवृत्तिरेतेषामसंयम इहोच्यते ॥ १० ॥
१०. हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य और परिग्रह की प्रवृत्तिः 'असंयम' कहलाती है ।
ऐतेषां विरतिः प्रोक्तः, संयमस्तत्त्ववेदिना । पूर्णा सा पूर्ण एवासौ, अपूर्णायाञ्च सोंऽशतः ॥ ११॥
११. तत्त्वज्ञों ने हिंसा आदि की विरति को 'संयम' कहा है । पूर्ण विरति से पूर्ण संयम और अपूर्ण विरति से आंशिक संयम होता है ।
जो व्यक्ति हिंसा आदि में रचा-पचा रहता है, वह असंयमी है; जो इनका आंशिक नियंत्रण करता है वह संयमासंयमी है, श्रावक है और जो इनका पूर्ण त्याग करता है वह संयमी है, साधु है। जितने अंशों में उनका त्याग होता है, उतने अंशों में संयम की प्राप्ति होती है और जितना अत्याग-भाव है वह असंयम है ।
पूर्णस्याराधकः प्रोक्तः, संयमी मुनिरुत्तमः । अपूर्णाराधकः प्रोक्तः, श्रावको पूर्ण संयमी ॥१२॥
१२. पूर्ण संयम की आराधना करने वाला संयमी उत्तम मुनि
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