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१३६ : सम्बोधि
मात्र यही आज्ञा है और यह आज्ञा ही धर्म है। तत्त्व-ज्ञान तरंगिणी में कहा हैसद्गुरुओं का यही आदेश है, समग्र सिद्धान्तों का यही रहस्य है और कर्तव्यों में मुख्य कर्तव्य यही है-अपने ज्ञान-स्वरूप में स्थिति करो। अन्य करणीय कार्यों की तालिका सिर्फ इसका ही विस्तार है।
व्यक्ति का आनन्द आज्ञा-स्वभाव को जागृत करने में है, विभाव में नहीं। विभाव दुःख है, बन्धन है और स्वभाव सुख, स्वतन्त्रता तथा मुक्ति है। जो विवेकी है, हिताहित का द्रष्टा है, उसे सोच-विचार कर अपने हित में प्रवृत्त होना चाहिए।
आराधको जिनाज्ञायाः, संसारं तरति ध्रुवम् । तस्या विराधको भूत्वा, भवाम्भोधौ निमज्जति ॥७॥
७. वीतराग की आज्ञा की आराधना करने वाला निश्चित रूप से सागर को तर जाता है और उसकी विराधना करने वाला भवसागर में डूब जाता है।
आज्ञायां यश्च श्रद्धालुर्मेधावी स इहोच्यते ।
असंयमो जिनानाज्ञा, जिनाज्ञा संयमो ध्रुवम् ॥८॥ ८. जो आज्ञा के प्रति श्रद्धावान् है वह मेधावी है। असंयम की प्रवृत्ति में वीतराग की आज्ञा नहीं है। वीतराग की आज्ञा का अर्थ है-संयम । जहां संयम है वहीं वितराग की आज्ञा है। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि जहां वीतराग की आज्ञा है वहीं संयम है।
संयमे जीवनं श्रेयः, संयमे मृत्युरुत्तमः । जीवनं मरणं मुक्त्यै, नैव स्यातामसंयमे ॥६॥
६. संयममय जीवन और संयममय मृत्यु श्रेय है। असंयममय जीवन और असंयममय मरण से मुक्ति प्राप्त नहीं होती।
संसारी प्राणी की दो अवस्थाएं हैं-जीवन और मरण। ये दोनों अपने आप में अच्छे या बुरे नहीं होते । जब ये दोनों संयम से अनुप्राणित होते हैं तब श्रेयस्कर
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